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अर्हत् अवस्था को उपलब्ध हुए थे। जन्मांध होने के कारण उन्हें चक्षुपाल नाम मिला । नेत्रहीन चक्षुपाल रास्ते पर चल रहे थे, उसी रास्ते से कुछ चींटियाँ भी चल रही थीं। उनमें से एक चींटी चक्षुपाल के पाँव के नीचे आकर मर गई। शिष्यों ने भगवान से पूछा- भगवन् जब चक्षुपाल के पाँवों से चींटियाँ मरती हैं तब क्या उन्हें इसका दोष नहीं लगता । जबकि वे तो अर्हत् कहलाते हैं। भगवान ने कहा- वत्स, हिंसा का दोष मन के आधार पर लगता है। चूँकि अर्हत् व्यक्ति का चित्त शांत हो चुका है, विमुक्त हो चुका है, इसलिए चित्त के परिणाम जब तक हिंसा के साथ जुड़े हुए नहीं होंगे तब तक किसी भी व्यक्ति को हिंसा का दोष नहीं लगेगा।
शिष्यों ने फिर भगवान से पूछा- जब चक्षुपाल के भीतर अर्हत् होने की क्षमता है तब यह व्यक्ति नेत्रहीन क्यों है ?
भगवान ने कहा- यह व्यक्ति इसलिए नेत्रहीन है क्योंकि इसने अपने पिछले जन्म में जब वह वैद्य था तब जानबूझकर एक स्त्री की आँखें फोड़ डाली थीं। उसी कर्म के उदय से आज यह नेत्रहीन है।
साधकों, स्मरण रखना जिस तरह बैलगाड़ी के चक्के बैल का अनुसरण करते हैं ठीक उसी प्रकार व्यक्ति के पूर्व जन्मकृत कर्म उसका अनुसरण करते रहते हैं। भले ही उस व्यक्ति में अर्हत होने की क्षमता भी हो ! चक्के बैलों को छोड़कर कहीं अटकते नहीं हैं, क्योंकि गाड़ी बैलों से बँधी है और चक्के गाड़ी से बँधे हैं। कुल मिलाकर सब एक-दूसरे से बँधे हुए हैं। मन ही समस्त प्रवृत्तियों का पुरोधा है, अगुआ है, वही प्रेरक है। जैसी उससे प्रेरणा मिलेगी व्यक्ति वैसा ही काम करेगा। इसीलिए मन जब मायूस होता है तो हमारी गतिविधियाँ भी मायूसी से भरी होंगी। मन में जब गुस्सा होता है तो उत्साह काफूर हो जाता है, जैसे-तैसे काम करते हैं, इसलिए ज़रूरी है कि व्यक्ति के मन की स्थिति परिष्कृत हो, शुद्ध और सात्विक हो। जीवन में मन को दषित करने से बढकर कोई पाप नहीं है और मन को संस्कारित और परिष्कृत करने से बड़ा कोई धर्म
और अध्यात्म नहीं है। मन को निर्मल करना जीवन की सबसे बड़ी तीर्थ यात्रा है।
साधकों की ओर से प्रश्न पूछा जा रहा है कि मन को जड़ माना जाता है तो उसे समस्त प्रवृत्तियों का आधार कैसे माना जाएगा? 136
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