Book Title: Vipashyana
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 133
________________ चित्त की लगातार होने वाली ठोस अनुभूति का नाम चित्तानुपश्यना है। श्री भगवान कहते हैं जब कोई साधक अपने चित्त की अनुपश्यना करने लगता है तब वह धीरे-धीरे धैर्यपूर्वक जानने लगता है कि मेरा चित्त इस समय रागयुक्त है अथवा रागयुक्त न होने पर वह भलीभाँति जानता है कि इस समय चित्त वीतराग है। चित्त को जानते हुए वह भली प्रकार जानता है कि चित्त द्वेषयुक्त है और द्वेष के न होने पर वह भलीभाँति जानने लगता है कि चित्त वीतद्वेष है। जब चित्त में कल्पनाएँ उठने लगती हैं तब साधक भलीभाँति जानने का प्रयत्न करता है या जानता है कि मेरा चित्त अतिकल्पनाशील है अथवा जब चित्त शांत लगता है तब वह भलीभाँति जानता है कि चित्त संक्षिप्त है, शांत है, सहज है, मौन है। जब चित्त विक्षिप्त होता है तब साधक भलीभाँति जानता है कि यह चित्त क्या है, एक पागलपन है, रात-दिन उठता और घुमड़ता रहता है। चित्त मेरा विक्षिप्त है। ___चित्तानुपश्यना करते हुए लगता है कि 'मेरा' चित्त विक्षिप्त है, लेकिन ज्यों-ज्यों साक्षी भाव प्रगाढ़ होता है, दृष्टा-भाव प्रगट होने लगता है, त्यों-त्यों लगता है 'चित्त' विक्षिप्त है। पहले तो लगता है ‘मेरा' चित्त विक्षिप्त है। पहले तो 'मेरा' 'मेरी' का भाव प्रबल होता है, 'मैं' को सुखद-दुःखद अहसासों का अनुभव होता है। लेकिन जैसे-जैसे दृष्टा-भाव प्रगाढ़ और प्रखर होता जाता है तब लगता है यह काया सुखद अथवा दुःखद अहसासों से भरी हुई है। 'मैं' और 'मेरा' दोनों हट जाते हैं। दोनों ही लुप्त हो जाते हैं। पहले जानने वाली खुद काया होती है, चित्त या अन्तरमन होता है, लेकिन ज्यों-ज्यों दृष्टा-भाव प्रगट होता है, 'मैं' और 'मेरे' का भाव बिखर जाता है। तब वह दृष्टा और साक्षीभाव से तटस्थ होकर काया को काया के रूप में जानता है। अनुपश्यना की विलक्षण फलानुभूति है साक्षी-भाव, दृष्टा-भाव । जब तक देखने वाला अलग और दृश्य अलग नहीं होता तब तक बार-बार अनुपश्यना करनी होती है। 'मेरे' भीतर नहीं, चित्त में राग का उदय होता है क्योंकि दृष्टा ने देख लिया, दृष्टा ने चित्त को जान लिया। 'मैं' चित्त नहीं क्योंकि यह जो पल-पल बदलने वाला है क्या वही 'मैं' हूँ ? अगर यह बदलने वाला 'मैं' हँ तब तो बंदर हो गया, उछलकूद करता रहता हूँ, पलभर भी टिकता नहीं हूँ। तो फिर 'मैं' कौन हँ ? पहले-पहल तो यही लगता है कि पल-पल जो मन, चित्त, विचारों के नाम पर बदल रहा है यही मैं हूँ। ज्यों-ज्यों दृष्टा-भाव, अनुपश्यना गहरी होती है त्यों-त्यों चित्त, मन और विचारों को जानने लगते हैं। 132 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158