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में स्थापित कर पाते हैं ? नहीं कर पाते ! क्योंकि हम सभी केवल शब्दों के तल पर ही जीते हैं और बोलने में शास्त्रों के वचनों को बोलते हैं। संप्रज्ञान इसीलिए ज़रूरी है कि हम प्रत्यक्ष अनुभूति में जानें कि क्या वास्तव में यह जगत मिथ्या है और ब्रह्म सत्य है। यूँ तो सभी जानते हैं कि काया मरणधर्मा है, अगर इस काया की चमड़ी को उतार दिया जाए तो सभी के एक ही रूप होते हैं। कहते हैं कि काया को जला दिया जाए तो मुट्ठीभर राख ही मिलती है फिर भी जीवनभर हर आत्मवादी, अध्यात्मवादी, ब्रह्मवादी सभी इस काया का पोषण करते रहते हैं. इसे सँवारते हैं, इसके सुख को सुख मानते हैं, इसी के भोग को अपने जीवन का आनन्द मानते हैं। इसीलिए श्री प्रभु कहते हैं आतापी होना जरूरी है, संप्रज्ञान करना ज़रूरी है। वास्तविक रूप से इस काया के प्रति, इसमें होने वाली वेदनाओं के प्रति सचेतन और स्मृतिमान होना ज़रूरी है। जब तक कोई बात ठोस अनुभूति में नहीं जाएगी तब तक सारी बातें ऊपर-ऊपर हैं। बुद्धिमान व्यक्ति अनुपश्यना के बारे में बोल तो सकता है, समझदार और बुद्धिमान अनुपश्यना के बारे में सुन तो सकता है लेकिन बुद्ध में और बुद्धिमान में फ़र्क है। बुद्धिमान अनुपश्यना के बारे में केवल बोलेगा, सोचेगा, लेकिन बुद्ध उसकी ठोस अनुभूति करेगा। व्यक्ति का ज्ञान जब तक ठोस अनुभूति के धरातल से न गुज़रे तब तक ज्ञान की सुगंध न फैलेगी।
__ धर्म के नाम पर अध्यात्म की और शास्त्रों की जो ऊँची-ऊँची बातें की जाती हैं, अगर उनमें से दो प्रतिशत भी ठोस अनुभूति नहीं हुई तो उन किताबों को पढकर रखने का कोई मतलब नहीं है। मुनिजन और संतजन धार्मिक स्थलों पर बैठकर उनकी चर्चा कर सकते हैं, प्रवचन दे सकते हैं, पर अनुभूति के नाम पर शून्य । उनके पास कोई अनुभव नहीं है। मैंने सुना है कि प्राचीनकाल के सद्गुरु शिष्य के जीवन को बदल दिया करते थे। आज की तारीख में गुरुजन अपने शिष्य को नहीं बदल पाते । हाँ, वे अच्छे शब्द कहकर, वैराग्य की बातें करके एक व्यक्ति को संत ज़रूर बना सकते हैं, पर उस संत को सिद्ध बनाना उनके वश में नहीं है। किसी को संत बनाना आसान है, लेकिन सिद्ध बनाना ? बुद्ध को बुद्धिमान बनाना आसान है, लेकिन बुद्धिमान को बुद्ध बनाना एक बड़ी तपस्या है, साधना है, चुनौती है। बुद्धि के लेवल पर ऊँचा उठाना प्रोफेसर का अच्छा काम हो सकता है, एक फिलॉसॉफर भी यह काम कर सकता है। पर बुद्ध बनाना तभी संभव है जब स्वयं साधक, स्वयं संत, स्वयं श्रमण, स्वयं भिक्षु उसकी ठोस अनुभूति कर चुका है। 128
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