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है, अमुक तत्त्व का अहंकार है, भीतर में तृष्णा है या इस प्रकार की कोई विक्षिप्तता है, मैं भीतर से पागल हूँ। हम सुनते हैं कि 'मैं आत्मा हूँ', 'अहं ब्रह्मास्मि', लेकिन विपश्यना करने वाला कहता है कि मैं आत्मा कहाँ । मैं ब्रह्म भी कहाँ, मैं तो तृष्णा में उलझी हुई चेतना हूँ। मैं तो वासना में, विकारों में, राग-द्वेष में उलझी हुई चेतना हूँ। कहाँ है आत्मा, कहाँ है परमात्मा ? मेरा सत्य क्या है ? परमात्मा दुनिया का, ब्रह्माण्ड का सत्य है, पर मेरा सत्य क्या है ? मेरा सत्य तो मेरे चित्त की वर्तमान दशाएँ हैं।
अनुपश्यना के चार चरण हैं- (1) काया, (2) काया के संवेदन, (3) चित्त और (4) हमारे मूलभूत धर्म । शुरुआत साँसों से है, आनापान से है, आती-जाती साँसों पर सचेतन होने से है। इस मार्ग पर न मंत्र है, न मूर्ति है, न कोई आरोपण है, न आलम्बन । यहाँ न पंथ है, न परम्परा । न वेश है, न गणवेश है। बस, तीन ही आधार हैं, तीन ही माध्यम हैं- (1) एकान्त, (2) मौन और (3) ध्यान । शान्त, एकान्त में बैठो ताकि बाहर का शोरगुल, बाहर के निमित्त प्रभावित न करें। मौन रखो ताकि बाहरी संवाद, बाहरी सम्बन्धों पर अंकुश लगे और हम अपने स्वयं के एकत्व के प्रति अधिक जागरूक हों। ध्यान धरें अर्थात् आतापी, स्मृतिमान और सचेतन होकर पूरे मनोयोग से विपश्यना करें, खुद को देखें, खुद को जानें, खुद के साथ एकरस, एकलय, एकाकार होते जाएँ। बन्द द्वार खुद खुलेंगे, सूरज खुद उगेगा, स्वयं में छिपे मन्दिर स्वतः साकार होंगे।
हम पहले स्थूल को जानेंगे, फिर धीरे-धीरे सूक्ष्म की ओर प्रयाण करेंगे। बाहर से भीतर की ओर जाने का प्रयास करेंगे । तत्त्व को समझने पर बाहर और भीतर की जागरूकता बढ़ेगी। विपश्यना देहरी का दीप बनकर हम सबके बाह्य और अन्तर को प्रकाशित करे, इसी मंगलभावना के साथ नमस्कार ।
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