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अपने अहंकार का पोषण करते रहे, राग-द्वेष में उलझते रहे, अपनी इन्द्रियों के विकारों से ग्रस्त रहे । इन आदतों को जिन्हें अतीत में जिया है, क्या इन आदतों को अपने साथ ही बनाए रखना चाहते हैं या इनमें परिवर्तन की दिशा धारण करना चाहते हैं ?
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सौभाग्यशाली ही अपने जीवन की कमियों और दोषों पर गौर कर पाते हैं। और उन्हें हटाने के लिए जागरूक होते हैं, अन्यथा कई तो अमृत के गड्ढे में गिरकर भी कीचड़ ही चाटते रहते हैं । लेकिन वे सौभाग्यशाली हैं, जिनका जन्म, यौवन, जीवन, पोषण भले ही कीचड़ के गड्ढे में क्यों न हुआ हो, फिर भी वे अपनी आँखों में सदा प्रकाश की किरण तलाशते रहते हैं । उस अमृत की तलाश करते हैं, जिसका पान कर मुक्ति का कमल खिल सके। सभी के जीवन में मुक्ति का माधुर्य फूट सके, ऐसी सम्भावनाएँ तलाशते हैं ।
कुछ लोग कीचड़ में जन्म लेते हैं और वहीं समाप्त हो जाते हैं । कुछ कीचड़ में जन्म लेकर अमृत की ओर अपने कदम बढ़ाते हैं । कुछ तो ऐसे भी होते हैं, जो जन्म तो अमृत में लेते हैं, लेकिन अपनी नज़र और निग़ाहों में कीचड़ को बसा लेते हैं। भव्य जीव वे होते हैं, जो अमृत में ही जन्म लेते हैं, अमृतपथ के ही अनुयायी होते हैं और अपने लक्ष्य में भी अमृत को ही बसाया करते हैं ।
हमारे जीवन का यथार्थ क्या है, यह तो व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर करता है। जीवन की हक़ीक़तें कुछ और होती हैं और जुबान पर आदर्श की बातें कुछ और हुआ करती हैं। अच्छी बातें कहना अलग बिन्दु है और स्वयं का मूल्यांकन करना यह बिल्कुल अलग बात है । सामान्य तौर पर जीवन में कोई भी स्वयं को गलत रूप में पेश नहीं करना चाहता । हरेक व्यक्ति अपनी छवि को अच्छीबेहतर - गरिमामय बनाए रखना पसन्द करेगा, लेकिन हम सभी जानते हैं कि फोटोग्राफिक चेहरा भी एक्स-रे में कैसा नजर आता है। यह हम सभी के जीवन की हक़ीक़त है। जन्मों-जन्मों से हमारे साथ ऐसी आदतें लगी हुई हैं, कषायों की ऐसी धाराएँ बहती रही हैं, संस्कारों का ऐसा प्रवाह चलता रहा है, इन्द्रियविकारों के धर्म हम पर ऐसे हावी रहते हैं कि इनके सामने हमारा सारा ज्ञान, बोध, संयम, वेश, व्रत, संकल्प सभी कुछ बहुत बौने नज़र आते हैं। बाहर का उजलापन भीतर की कालिमा के सामने छोटा पड़ जाता है । यह तो कोई सूरज उगे तो प्रकाश हो सकता है नहीं तो क्या तारों से दुनिया रोशन हो सकती है ! हम सभी के भीतर वह तमन्ना चाहिए, वह तपिश चाहिए, वह जागरूकता चाहिए
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