Book Title: Vipashyana
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 110
________________ वह आत्म ज्ञानी कष्ट और वेदनाओं से ऊपर उठ जाता है । जो शरीर और आत्मा, जीव और निर्जीव को एकरूप मानता रहता है, उसके जीवन और चित्त पर वेदना तथा कष्ट प्रभावी रहते हैं । लेकिन जैसे हंस नीर-क्षीर विवेक रखता है वैसे ही भेद-विज्ञानी, आत्म-ज्ञानी शरीर और आत्मा को भिन्न-भिन्न जानने में समर्थ हो जाता है। ऐसा व्यक्ति अपने शरीर को वेदना, कष्ट, खिंचाव, तनाव, दबाव, प्रतिकूलताएँ, दुःखद संवेदनाएँ - इनसे प्रभावित नहीं हो पाता । मैंने अपने जीवन में कुछ वर्षों पूर्व आत्म - योगिनी साध्वी विचक्षण श्री जी को देखा था। उनकी छाती में कैंसर हो गया था । उनके एक स्तन में से हर समय मवाद रिसता रहता था । हज़ारों लोगों ने देखा वह साध्वी महिला ऐसी स्थिति में भी अपने हाथ में हर समय एक माला थामें रहतीं और प्रभु के ध्यान में लीन रहतीं। तब लोगों ने जाना कि 'तन में व्याधि और मन में समाधि' - इसे कहते हैं । उस साध्वी ने यह तत्त्व, यह मर्म, यह बोध अर्जित कर लिया था कि शरीर अलग है, मैं अलग हूँ । 'मैं' और 'मेरा' दोनों ही शरीर के साथ आरोपित करना प्राणिमात्र का अज्ञान होता है, अबोध दशा है । जल - हाड़-माँस, पंच महाभूत और चार धातुओं से बनी हुई हमारी यह काया पता नहीं चलता कब तक है और कब नहीं है । बाहर से साफ, सुन्दर, सलोनी दिखाई देने वाली काया में कब टूट-फूट हो जाए, - झुलस जाए, अपंगता आ जाए, पता नहीं चलता है । जैसे इस काया में डाले गए हर भोजन का परिणाम अशुचितापूर्ण होता है वैसे ही हमारी काया इसी गुण-धर्म से प्रभावित है। क्योंकि जो भीतर है वही तो बाहर होगा। सड़ना, गलना, बनना, मिटना यही सब इस काया के गुण-धर्म हैं । अज्ञानता की दशा में हम इस काया के भोग के प्रति, इन्द्रियों के सुखों के प्रति लालायित, आतुर और तृषार्त रहते हैं । लेकिन आत्म-ज्ञानी जिसने जीव और जड़ को अलग-अलग जान लिया है वह इस जड़ के द्वारा होने वाले प्रभावों से अप्रभावित रहता है । वह निरपेक्ष रहता है क्योंकि वह शुद्ध रूप से साक्षी हो जाता है । आत्म- दृष्टा होने का अर्थ ही यही है कि वह शुद्ध साक्षी हो गया। I दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं- एक जो तलहटी पर हैं, दूसरे वे जो शिखर पर होते हैं। तलहटी पर रहने वाले लोग ज़मीनी तूफ़ानों से, ज़मीनी धूल से परेशान रहते हैं, लेकिन जो शिखर पर पहुँच चुके हैं ऐसे लोग तटस्थ भाव से 109 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158