Book Title: Vipashyana
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 125
________________ 10 कैसे करें चित्त की अनुपश्यना विगत कुछ दिनों से हम विपश्यना के, अनुपश्यना के पवित्र मार्ग का अवगाहन कर रहे हैं। अनुपश्यना के मर्म को समझते हुए इसे अपने जीवन के साथ साधते हुए इसके ठोस परिणामों को उपलब्ध करने का अभ्यास भी कर रहे हैं, प्रयास और पुरुषार्थ भी जारी है। इसी के अन्तर्गत आनापान-योग को समझने का प्रयत्न किया अर्थात् आती-जाती सहज व नैसर्गिक श्वासों पर स्वयं को सचेतन करने का, सम्यक् प्रकार से उसका बोध करने का, उदय और विलय के मर्म को समझने का प्रयास किया। इसके बाद अनुपश्यना की गहराई को समझते हुए कायानुपश्यना के द्वार पर पहुँचे अर्थात् काया में होने वाले विविध प्रकार के उपद्रव, प्रपंच और इसकी विभिन्न स्थितियों से वाक़िफ़ होने का प्रयत्न किया। यह भी भलीभाँति जानने की कोशिश की कि यह काया है। 'मैं' न काया हँ, न 'मेरी' काया है। काया के साथ हम लोगों ने केवल तटस्थ, साक्षी भाव और दृष्टा-भाव को प्राथमिकता देने का प्रयत्न किया। हमने काया के साथ 'मैं' और 'मेरे' का भाव हटाते हुए तटस्थ भाव से उसे 124 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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