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समझने का, उसे भलीभाँति जानने का, भलीभाँति संप्रज्ञान करने का अभ्यास किया।
साधक को किसी भी परिणाम तक पहुँचने के लिए, किसी भी विलक्षण फल को प्राप्त करने के लिए केवल दस दिन की अनुपश्यना कर लेने भर से सारे परिणाम उपलब्ध नहीं हो जाते हैं। क्योंकि हम सभी के भीतर जन्म-जन्मांतर के ऐसे संस्कार हैं जो दस दिन की अनुपश्यना में समाप्त नहीं हो जाते । कुछ साधक अपनी साधना के द्वारा मात्र नौ माह में अपने परिणाम उपलब्ध कर लेते हैं, कुछ साधकों को सवा वर्ष लग जाता है, कुछ साधकों को पाँच, सात वर्ष लग जाते हैं। पर एक बात तय है कोई भी साधक लगातार सात वर्षों तक अनुपश्यना के रास्ते पर चल रहा है तो निश्चित ही वह अपने मन और काया के विकारों से, चित्त के दुःख-दौर्मनस्य से, वैर-विरोध से मुक्त हो जाएगा। वह सत्य से साक्षात्कार करेगा, और मुक्ति तथा निर्वाण तत्त्व के अत्यंत निकट पहुँच जाएगा।
हमने काया की अनुपश्यना करते हुए मन और काया के विकारों को शांत और समाप्त करने के लिए, उनसे उपरत होने के लिए, उनकी निर्जरा करने के लिए काया की अलग-अलग गंदगियों को भी समझने का प्रयत्न किया। कुछ साधक ऐसे हैं जो काया की गंदगियों को समझने मात्र से काया के मोह और विकारों से मुक्त नहीं हो पाए उनके लिए श्मशान तक की साधना भी सहयोगी बन जाती है, हमने यह जाना । हम सामने जलती हुई लाशों को देखकर काया के मर्म को समझ लें। हम सभी गजसुकुमाल के इस प्रसंग से वाक़िफ़ हैं कि गजसुकुमाल संन्यास लेते हैं। श्मशान में चले जाते हैं और वहाँ जलती हुई लाशों को देखकर उन्हें अपनी काया की नश्वरता और अनित्यता का बोध होने लगता है। वे यह संकल्प करते हैं कि मैं आज रातभर श्मशान में खड़े रहकर साधना करूँगा और इस बीच चाहे जैसे कष्ट आ जाए, चाहे जैसे उपद्रव हो जाए, चाहे जिन प्रपंचों से गुजरना पड़े, लेकिन अपनी साधना को खंडित नहीं होने दूंगा।
___ गजसुकुमाल ने भिक्षु-प्रतिमा धारण करते हुए, ऐसी प्रतिमा जिसमें साधक विचलित नहीं होगा चाहे उसकी चमड़ी ही क्यों न उधेड़ दी जाए। जैसे बाबा फरीद ने कभी गाया था
कागा, यह तन खाइयो चुन-चुन खाइयो मांस । दो नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस।।
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