Book Title: Vipashyana
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 120
________________ परिवार-पत्नी-बच्चे याद आ सकते हैं तब सावधान हो जाइए । तीन तत्त्वों में से एक भी कमज़ोर पड़ा तो अनुपश्यना भी कमजोर हो जाएगी। तब विलक्षण फलों को न पाया जा सकेगा। स्वयं की बारीकियों को उपलब्ध नहीं किया जा सकेगा। इसीलिए कहते हैं कि सिर से लेकर पाँव के अंगूठे तक एक-एक अंग पर जागरूक बनो। एक-एक अंग पर सजग होने की कोशिश करो। हमेशा एक-एक अंग पर जागना ज़रूरी नहीं है। कभी किसी विशिष्ट अंग का भी संप्रज्ञान कर सकते हैं और कभी सिर से एड़ी तक का सम्पूर्ण संप्रज्ञान भी कर सकते हैं। भलीभाँति उसका अनुभव कर सकते हैं। कभी सिर से गर्दन तक, कभी गर्दन से हृदय की ओर, हाथ की ओर, पेट की ओर, नाभि की ओर, पेड़ की ओर, पाँवों की ओर- एक-एक अंग पर भी संप्रज्ञान कर सकते हैं। साधना में एक बार, दो बार, तीन बार, जितनी बार, जितनी देर हम संप्रज्ञान करना चाहें कर सकते हैं क्योंकि उदय और विलय तो पल-पल होता है। जितनी बार बैठोगे, जितनी बार करोगे कुछ-न-कुछ पकड़ में आएगा। कुछ-न-कुछ समझ में आएगा कि जो काया हमें प्रभावित करती है, जिसे हमने थामा है, जिसमें हम रहते हैं, वह काया आखिर क्या है ? इसमें बार-बार उपद्रव क्यों उठते हैं ? गुप्तांगों की अनुपश्यना चलाकर नहीं करनी चाहिए, लेकिन वहाँ कोई उपद्रव उठ गया है तो विशेष रूप से सचेतन होकर, विशेष रूप से संप्रज्ञान के भाव लाते हुए, विशेष रूप से आतापी होने के भाव लाकर हमें वहाँ की अनुपश्यना करनी चाहिए यह मानकर कि यह भी काया का उपद्रव है। याद रहे अगर हम भली-भाँति संप्रज्ञान नहीं करेंगे तो भोग के भाव बढ़ सकते हैं। इसीलिए आनापान साधना ज़रूरी है। अगर आनापान सधता है तो कायानुपश्यना सधती है। कायानुपश्यना का कोई तय मार्ग नहीं है। यह तो व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर है कि उसके काया के उपद्रव किस स्तर के हैं। कुछ लोगों की काया अत्यंत शांत, सौम्य होती है और कुछ अत्यंत भोग के भाव से भरे रहते हैं। जो शांत हैं, सौम्य हैं उन्हें श्मशान जाने की ज़रूरत ही नहीं है। यह तो अलग-अलग प्रकार की काया है कि किसमें दुर्गुण ज्यादा हैं और किसमें सद्गुण। आज अब हम वेदनानुपश्यना पर चर्चा करते हैं अर्थात् शरीर में होने वाली वेदनाओं का संप्रज्ञान करना, उनको भलीभाँति सचेतन होकर जानना, 119 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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