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अनमोल हीरा नज़र आया । एक पल के लिए अन्तर्भाव उठे कि वाह क्या अद्भुत हीरा है, ऐसा हीरा तो मैंने अपने राजकोष में भी नहीं देखा था। ध्यान में बैठे थे लेकिन ........ ! व्यक्ति निमित्त देख लेता है तो अपने-आप बहने लगता है, चित्त तरंगित हो जाता है। मन में कामना उठ आई कि जाकर उठा ही लेता हूँ। वे सोच ही रहे थे कि खड़ा होऊँ, जाऊँ, तभी देखा कि पूरब दिशा से एक सुभट घोड़े पर दौड़ता आ रहा है और पश्चिम दिशा से भी एक सुभट घोड़े पर दौड़ा चला आ रहा है। दोनों तरफ से दौड़ लगी हुई है। दोनों एक-दूसरे के सामने आ रहे थे, भर्तृहरि ने सोचा अरे देखू, ये लोग क्या कर रहे हैं ? तभी पता चला कि दोनों ओर से कुछ अन्य सुभट भी हीरे वाले स्थल पर पहुंच चुके थे। तलवारें तन गईं, दोनों हीरे पर अपना दावा जताने लगे। तलवारें चल पड़ीं, सभी लहूलुहान हो गए, सबकी लाशें गिर पड़ी। हीरा मुस्कुराता वहीं रह गया, आसपास लाशें बिछ गईं। भर्तृहरि को जीवन का ज्ञान, अध्यात्म का सार, अध्यात्म की चाबी मिल गई कि जो तटस्थ है वही सुखी है और जो कभी राग
और कभी द्वेष की तरफ घड़ी के पेन्डुलम की तरह अपने चित्त में इधर-उधर डोलता है वह सदा दुःखी रहता है। ठीक वैसे ही जैसे इस एक हीरे के लिए इतने सिपाही और सुभट मर गए। हीरा वहीं का वहीं और वही का वही। हम ही लेश्याओं से घिरते हैं। मोह-मूर्छा के मकड़जाल रचते हैं।
आज हम श्री भगवान के जिन सूत्रों का चिंतन और मनन करेंगे वह व्यक्ति के मन को तटस्थ भाव, साक्षी-भाव की ओर ले जाता है। प्रत्येक साधक को भलीभाँति समझ लेना चाहिए कि साधना की कुंजी साक्षी भाव है। साधना की आत्मा, आत्म-ज्ञान की चाबी, अनासक्ति और मुक्ति का द्वार साक्षी-भाव से खुलता है। इस साक्षी-भाव को विकसित करने के लिए ज्ञानीजनों ने अनुपश्यना का मार्ग दिया। अनुपश्यना को साधने के लिए बुद्ध ने, महावीर ने, पतंजलि ने जो रास्ता दिखाया वह है आती-जाती श्वासों पर अपनी सचेतनता को साधना, उसका संप्रज्ञान करना, उसका भलीभाँति तत्त्वदर्शन और बोध करना, उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति करना । जो साधक श्वास-धारा के प्रति जागरूक नहीं होगा वह तीन मिनिट पश्चात् अपने चित्त की वज़ह से विचलित हो जाएगा। इसलिए आनापान-योग को साधना अपनी सच्चाई के दर्शन के लिए, अपने विकारों के विरेचन के लिए जरूरी है। दुनियाभर के साधनामार्ग हमें परमात्मा से, मंत्र से, धर्म और धर्म की पंक्तियों से जोड़ सकते हैं
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