Book Title: Vipashyana
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 67
________________ आती-जाती श्वास है । श्वासों को मन और बुद्धि सरलता और शीघ्रता से पकड़ सकते हैं। मुख का ऊपरी प्रदेश नासिका है और नासापुट मध्य क्षेत्र हैं अर्थात् आती-जाती श्वासों पर अपना ध्यान, अपनी जागरूकता और सचेतनता स्थापित करने का प्रयत्न करें। चौथी बात- पालथी लगाकर बैठे। शारीरिक अस्वस्थता के कारण आप कुर्सी पर बैठ सकते हैं, लेकिन स्वस्थ व्यक्ति पालथी लगाकर बैठे। शरीर में होने वाले सत्य को समझने के लिए शरीर को स्थिर करके पालथी लगाकर, मेरुदंड सीधा रखकर, एकान्त में मौन होकर बैठें। किसी भी प्रकार का आरोपण न करें, किन्हीं चीज़ों को याद न करें। हर चीज़ से मुक्त होकर अर्थात् राग-द्वेष से रहित होकर अनुपश्यना करने के लिए तत्पर हों। तभी हम अपने भीतर होने वाले उदयों को समझ सकेंगे, वरना इधर-उधर भटकते रहेंगे, बाहर के वातावरण प्रभावित करते रहेंगे। हमें बाहर की घटनाओं का भी साक्षी होना है, जो हो रहा है, उसे होने दें। साधक तय कर ले कि उसे सामाजिक स्वरूप को बरकरार रखना है या अपने निर्वाण स्वरूप की प्राप्ति के लिए प्रयासरत रहना है। हमें क्या चाहिए, दो नावों की सवारी या लक्ष्य की उपलब्धि ? दो नावों पर सवार होकर हम कहीं भी न पहुँच सकेंगे न माया मिलेगी और न ही राम । __हमारी हालत यह है कि न तो संसार में डूब पाते हैं, न ही साधना की गहराई में उतर पाते हैं। दोनों जगह उथले-उथले चल रहे हैं। हम साधना में तो बढ़ना चाहते हैं, पर संसार का मोह छोड़ नहीं पाते। अगर आगे बढ़ना है, तो दोनों क़दम एक साथ चलेंगे। दस क़दम की दूरी तय करने के लिए एक पाँव से नहीं चला जा सकता। साधना संसार से दस क़दम आगे बढ़ाना है। हम एक क़दम तो उठा लेते हैं, पर दूसरा क़दम उठाने का साहस अपने भीतर नहीं जुटा पाते। हम सभी पहले और दूसरे क़दम के बीच ही अटके रह जाते हैं। दूसरा क़दम बढ़े तभी तीसरा क़दम सार्थक होगा। जो छोड़ना है, वह तो छोड़ नहीं पाते और चाहते हैं निर्वाण, मुक्ति । साधक अपना नज़रिया स्पष्ट कर ले कि वह क्या पाना चाहता है। इसीलिए कहते हैं- मरौ हे जोगी मरौ । पहले मरना होगा- किसी का चेला बन जाना संन्यास नहीं है, संन्यास वह है, जिसमें आपके लिए संसार ना-कुछ हो गया है। उसके पहले संन्यास आता ही नहीं है । संन्यास का वेश ज़रूर आ जाता 66 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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