Book Title: Vipashyana
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 68
________________ है, पर भीतर संन्यास अवतरित नहीं होता । संन्यासी के लिए दुनिया मर गई। वह केवल उसी के लिए, प्रभु के लिए ही समर्पित हो जाता है। इसीलिए मैं कहता हूँ संन्यासी होना अत्यन्त दुर्धर तपस्या है। जन्मों-जन्मों में किसी प्रबल पुण्योदय से कोई वास्तविक संन्यासी बन पाता है। शेष तो वेश-परिवर्तन से क्या फ़र्क पड़ता है, फिर संसार में रहो कि संन्यास में।। श्री भगवान कहते हैं पालथी मारकर बैठो, मुख के ऊपर भाग पर अपनी स्मृति को, अपनी सचेतनता को प्रतिष्ठापित करो। केवल स्थापित ही न करें, 'प्रतिष्ठापित' करें । प्रतिष्ठा यानी जिसे अब हिला भी न सकें । मंदिर में मूर्ति की प्रतिष्ठा करते हैं तो बाद में वह हिलाते भी नहीं हैं और अगर हिल जाए या हट जाए तो कहते हैं आशातना हो गई। इसी तरह जब हमारा ध्यान हट जाए तो उसे क्या कहेंगे ? असल में तो हम उस पर गौर ही नहीं करते। प्रतिष्ठा का अर्थ हुआ- अपने प्राणों को, स्वयं को वहाँ प्रतिष्ठित कर दिया, प्राणपण से अपनी जागरूकता को, सचेतनता को मुख के ऊपर भाग पर प्रतिष्ठापित करना है। जब कोई साधक इस बाह्य दशा का, बाह्य स्वरूप का निर्माण कर लेता है, तभी वह साधना के लिए तैयार हो पाता है, उसकी भूमिका, उसका धरातल बन जाता है और तब वह भलीभाँति आती हुई साँस को भी जान लेगा और जाती हुई साँस को जानने में भी सफल हो जाएगा। कोई व्यक्ति अगर साधना के मार्ग पर पहला क़दम रख रहा है, तो उसके लिए मैं सुझाव दूंगा कि वह एक माला हाथ में रख ले। शुरुआती दौर में माला उपयोगी बन सकती है। यह सलाह बुद्ध ने नहीं दी है, मैं दे रहा हूँ। अन्यथा पता ही नहीं चलेगा कि बीस मिनट हुए या नहीं। साँस + धारा पर थोड़ी-सी सचेतनता सधते ही माला छोड़ दें। केवल दस दिन के लिए हमें यह माला तीन बार फिरानी है। कोई मंत्र नहीं, कोई जाप नहीं करना है। ज्ञान मुद्रा धारण करें और एक मनका घुमाएँ, लम्बी गहरी साँस लें और लम्बी गहरी साँस छोड़ें। अभी हम ध्यान नहीं कर रहे हैं, अभी श्वास-प्रश्वास का अभ्यास कर रहे हैं । यह सचेतन प्राणायाम है। चित्त भटक सकता है, लेकिन चिन्ता न करें। पुनः उसे लौटा लाएँ और अभ्यास जारी रखें। समाधि का पहला द्वार है- आनापान-योग। अपनी आती-जाती श्वासों पर अपनी स्मृति को, सचेतनता को स्थापित करना। अपने मन के घोड़े को साँसों के रास्ते पर लगाना। अभी साँसों की अनुपश्यना नहीं हो रही है, साँसों 167] Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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