Book Title: Vipashyana
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 46
________________ अनुपश्यना करें। भगवान ने हमें चार धरातल बता दिए, हमें अपने लिए जो अनुकूल लगे उस धरातल को अपने साथ जोड़ लें। __ प्रथम अभ्यास के लिए क्रमशः चरण स्वीकार करें। पहले स्थूल की अनुपश्यना, पहले स्थूल का ध्यान, स्थूल का ज्ञान, स्थूल पर सचेतनता, फिर सूक्ष्म पर सचेतनता । स्थूल, जो अनुभव में आ रहा है, जब उसी पर पूरे सचेतन नहीं हो पाते, तो सूक्ष्म पर कैसे सचेतन होंगे, उसे कैसे पकड़ेंगे ? हम क्रमशः अनुपश्यना साधे। पहली है- कायानुपश्यना अर्थात् अपने देहपिंड के प्रति भलीभाँति जागरूक होना, उसे भलीभाँति भीतर और बाहर से देखना, समझना, उसका बोध प्राप्त करना। वेदनाओं की अनुपश्यना अर्थात् शरीर में जगने वाले अनुकूल-प्रतिकूल संवेदन और अहसासों के प्रति जागरूक होना। हमारे इस देहपिंड में जो सुखद या दुःखद उदय-विलय हो रहे हैं, उन्हें भलीभाँति देखना, जागरूक होना और उनका बोध प्राप्त करना । उनकी प्रकृति को समझकर उनका निवारण करना । कायानुपश्यना करते हुए हम जानने लगते हैं कि यह त्वचा है, यह मांसपिंड है, यह हड्डियाँ हैं, यह वायु, कफ, पित्त, मल-मूत्र, पसीना है, यह आँखों का मैल है, वह इन चीज़ों की ठीक-ठीक पहचान करता है कि यह है। किसी का जन्म देखा तो जाना कि यह है काया, किसी की मृत्यु देखी तो भी जाना कि यह है काया। किसी शव को जलते हुए, राख होते हुए देखा तो जाना कि यह है काया। किसी जानवर की मृत देह के मांस के लोथड़े बिखरे देखकर जाना कि यह है काया । अथवा देह में उद्वेग उठे, कामवासना के तंतु जागे, इंसान फड़कने लगा, गलत काम करने लगा, भोगों में लिप्त हो गया, लेकिन इनमें भी जागरूकता रखने वाला जानेगा कि यह है काया और ये इस काया के उद्वेग हैं। जो भी हो रहा है, बस हो रहा है, कोई आरोपण नहीं करना है, निक्षेप या जबरदस्ती चिन्तन-मनन नहीं करना है, जो है उसे देखना है । सोचेंगे तो उसी के बारे में सोचते रह सकते हैं। सोचना नहीं है, करना भी कुछ नहीं है, केवल स्वयं के प्रति जागना है और जो कुछ भी हो रहा है, उसके साक्षी हो जाना है। काया और उसके सुख-दुःख की संवेदनाओं के प्रति भलीभाँति जागरूक हो जाना है। अथवा चित्त की अनुपश्यना करने वाला, चित्त को जानने वाला, चित्त-दशाओं के प्रति जागरूक साधक जान रहा होता है कि ये संस्कार हैं, राग-द्वेष की वृत्तियों की स्मृतियाँ हैं, मोह का अंधकार है, लोभ की आकांक्षा 145 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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