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यह आगे के जन्मों तक भी संचारित रहेगा।
दो सौतन महिलाएँ थीं। उनका आपस में जबरदस्त वैर-विरोध था । जन्मों-जन्मों तक दोनों एक-दूसरे को नुकसान पहुँचाती रहीं, उनका वैर मिटता ही न था। उनमें से एक किसी जन्म में यक्षिणी बन गई और दूसरी कुलकन्या के रूप में जन्मी । बड़े होने पर कुलकन्या की शादी हो गई। उसके सन्तान हुई । तब उस यक्षिणी ने अपने ज्ञान से जाना कि उसका किससे वैर-विरोध रहा है। उसे याद आ गया, उसने कुलकन्या को पहचान लिया। वह वहाँ पहुँच गई और उसने बच्चे को खा लिया। कुलकन्या को बहुत पीड़ा हुई, वह भी पहचान गई। यक्षिणी ने कहा- मैं वही हूँ, जो सात जन्मों से तेरा पीछा करती आ रही हूँ। याद रख मैं तुझे किसी भी हालत में शांति से नहीं जीने दूंगी। कुलकन्या को दूसरी संतान हुई, पर वह यक्षिणी आई और उसे भी खा गई। तीसरी संतान का भी भक्षण कर लिया। इस तरह क्रम चलता रहा। तब पति-पत्नी ने निर्णय लिया कि इस बार की प्रसूति कुलकन्या के पीहर में करवाएँगे। वह पीहर चली गई, बच्चा हुआ । बच्चा एक-दो वर्ष का हो गया, तब उसने सोचा अब तो बच्चा बड़ा हो गया है तो कोई दिक्कत नहीं है। वह चल पड़ी, रास्ते में बच्चे को दूध पिलाने के लिए बैठी तो देखा कि वही यक्षिणी आ रही है। उसने बच्चे को गोद में उठाया और भागी। दौड़ते-दौड़ते भगवान बुद्ध के चैत्य-विहार में जा पहुँची
और जाते ही अपना बच्चा उनके श्रीचरणों में चढ़ा दिया। आँखों में आँसू भरकर बोली- प्रभु, मेरे बच्चे को जीवनदान दीजिए। वह प्रेतात्मा यक्षिणी बुद्ध के चैत्य-विहार में प्रविष्ट न हो सकी, क्योंकि देव-देवियों द्वारा रक्षित उस विहार के द्वार पर ही यक्षिणी को रोक दिया गया। जब भगवान बुद्ध को पता चला तो उन्होंने कहा- यक्षिणी को अन्दर बुलाया जाए। यक्षिणी बुद्ध के सम्मुख उपस्थित हुई।
बुद्ध ने कहा - बहिन, सोचो इस तरह तुम कितने जन्म-जन्मांतरों तक वैर-विरोध करती रहोगी। अगर इस जन्म में भी तुम दोनों ने एक-दूसरे को क्षमा नहीं किया तो ये सात जन्म नहीं, अगले सत्तर जन्म भी गुजार लोगे। तब भी एक-दूसरे का बुरा ही बुरा करते रहोगे। अगर तुम एक-दूसरे का भला करना शुरू कर दो तो इसी जन्म में तुम्हारा कल्याण हो सकता है। अन्यथा बुरा करते हुए तुम्हारी आत्माओं का उद्धार नहीं हो पाएगा। सोचो तुम अपने लिए क्या चाहते हो। तब बुद्ध ने यह गाथा कही थी। उन्होंने कहा- बहनों. यही
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