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अगर दो मिनिट का भी क्रोध कर लिया तो आपकी सारी साधना व्यर्थ हो गई। जिसने महावीर की समिति-गुप्ति को, बुद्ध के शील को समझ लिया, उसे जीवन में उतार लिया तो विश्वास करते हैं कि जीवन में प्रतिकूलताओं के आने पर वह विचलित नहीं होगा, क्योंकि प्रतिकूलताएँ तो आती ही हैं, हानियों का सामना करना ही पड़ेगा, यहाँ कोई भी दुत्कार सकता है। इसलिए शीलों का पालन हो।
पहला शील है – हिंसा का त्याग । मन, वचन और काया के द्वारा न तो द्रव्य हिंसा हो और न ही भाव हिंसा अर्थात् मन के संकल्प-विकल्प द्वारा किसी की हत्या नहीं करूँगा, किसी का बुरा नहीं चाहूँगा । ऐसी वाणी बोलने से परहेज रखेंगे, जिससे दूसरों को ठेस पहुँचती हो। कर्कश और कटु वाणी का उपयोग नहीं करेंगे। किसी की निन्दा-आलोचना में रस नहीं लेंगे।
किसी गुरु के पास एक व्यक्ति पहुँचा और उसने पूछा – प्रभु, आत्मशुद्धि का क्या मार्ग है ? आत्मसिद्धि और आत्मज्ञान प्राप्त करने का मार्ग बताएँ। तब गुरु ने केवल इतना ही कहा – अंधा बन, बहरा बन, गूंगा बन, लंगड़ा बन, यहाँ से जा, बस इतना-सा ही मार्ग है। वह व्यक्ति चौंका, यह कैसा मार्ग हुआ। वह गुरु के भी गुरु के पास पहुँचा और सब बात कही। महागुरु ने कहा- मेरे शिष्य ने तुम्हें साधना का सही और सटीक मार्ग समझा दिया है। मैंने जो ज्ञान उसे दिया था, उसने चार शब्दों में पिरो लिया है। एक तरह से उसने इन्हें जीवन का शील बना लिया है। युवक को समझ में नहीं आया, तो महागुरु ने कहा- अंधा बन अर्थात् दूसरों के दोषों को मत देख, पराई स्त्री पर गलत नज़र मत डाल । बहरा बन अर्थात् दूसरों की निन्दा और आलोचना मत सुन, उसमें रस मत ले और स्वयं की प्रशंसा सुनने की आदत जीवन से हटा दे। दूसरों की निन्दा और आलोचना सुनने से तुम्हारा मन दूषित होगा और प्रशंसा सुनने से अहंकार बढ़ेगा, अतः बहरा बन । जबान से गूंगा बन अर्थात् असत्य मत बोल, जिह्वा से कर्कश वाणी का उपयोग मत कर। लंगड़ा बन अर्थात् ग़लत जगह पर मत जा, किसी मदिरालय या वेश्यालय जैसे ग़लत स्थान पर जाने से बच।
__ कोई मुझसे शील को जीने का सार पूछे तो मैं यही कहूँगा- अंधा बन, बहरा बन, गूंगा बन और लंगड़ा बन । इस वाक्य में दुनियाभर के शास्त्रों का सार और नवनीत समा गया है। ज़्यादा जानने और पढ़ने की ज़रूरत ही नहीं है। बस
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