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सनातन धर्म है कि वैर से कभी वैर शांत और समाप्त नहीं होता, अवैर से ही हम अपने वैर-विरोध को दूर कर सकते हैं।
इस बात की प्रतीक्षा न करो कि सामने वाला हमसे माफी माँगे । स्मरण रहे माफी देने वाला नहीं, माफी माँगने वाला बड़ा होता है। तुम आगे बढ़ो, ज़रूरी नहीं है कि तुम जिससे क्षमा माँगने जा रहे हो, वह भी तुम्हारी विचारधारा से मेल रखता हो। तुम्हारे भीतर दया, करुणा, प्रज्ञा जागी, सचेतनता आई, मंगलभावना उठी, लेकिन ज़रूरी नहीं है कि जो मित्र-भाव तुम्हारे भीतर उठा है, वह उसके भीतर भी जागे। अपनी भावदशाओं में शुभ भावधारा लाओ। शत्रु का भी भला चाहो। आपके विचारों में आ रही निर्मलता से आपका आभामंडल भी निर्मल होगा और इस तरह हम सामने वाले के भावों को निर्मल करने में अवश्य सफल होंगे। तय है अगर आप आगे बढ़ते हैं तो सामने वाला भी आगे बढ़ने को उद्यत हो सकता है। जो झुकता है, वही दुनिया को झुका सकता है। अवसरों के उपस्थित होने पर जरा भी देर न करें अपने विरोधियों को निमंत्रण देने में। फिर चाहे वह विवाह का मौका हो या तपस्या का अवसर । जब आपके निमंत्रण पर विरोधी आ जाए तो समझ लेना कि तपस्या फलित हो गई। अच्छा व्यवहार करके हम दूसरों को भी अच्छा करने का मौका दे देते हैं।
सिकंदर विश्व-विजय की भावना से यूनान से निकला। ज़ाहिर है, जिसे विश्व-विजय करनी है, वह हत्याएँ और नरसंहार करता हुआ आगे बढ़ रहा था। इसी क्रम में वह भारत के तक्षशिला राज्य के पास पहुँचा। जब वह तक्षशिला पर आक्रमण करने के लिए उद्यत हुआ तो वहाँ के तत्कालीन राजा ने युद्ध के बजाय दोस्ती का हाथ बढ़ाना चाहा। उसने सोचा कि विदेश से आया हुआ राजा जो विश्व-विजय की तमन्ना रखता है तो निश्चय ही वह शक्तिशाली होगा और समझदारी इसी में है कि अपने से अधिक शक्तिशाली से युद्ध करने की अपेक्षा दोस्ती का संदेश भेजें। तब नरेश सिकंदर के सम्मुख उपस्थित हुए और पूछा कि तुम यहाँ खून-खराबा करने आए हो या सम्पत्ति अधिग्रहित करने । उत्तर मिला कि सम्पत्ति लेने । तब उन्होंने कहा कि फिर सम्पत्ति ही लो न, नरसंहार करने की कहाँ ज़रूरत है। सिकंदर ने कहा- बात तो ठीक है। तब नरेश ने कहा- एक लाख स्वर्ण मुद्राओं के साथ मैं आपसे दोस्ती का हाथ बढ़ाता हूँ। सिकंदर चकित हो गया- दोस्ती के साथ एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ भी।
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