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वास्तुसारे
कुमारमुनिकृत शिल्परत्न में नीचे लिखे अनुसार रेखाएँ शुभ मानी है। " नन्द्यावर्त्तवसुन्धराधरहय- श्रीवत्सकूर्मोपमाः
"
शङ्खस्वस्तिक हस्तिगोवृषनिभाः शक्रेन्दु सूर्योपमाः ।
(८)
छत्रस्रग्ध्वजलिंगतोरणमृग प्रासादपद्मोपमा,
वज्राभा गरुडोपमाश्च शुभदा रेखाः कपर्दोपमाः ॥ "
पत्थर या लकड़ी में नंद्यावर्त्त, शेषनाग, घोड़ा, श्रीवत्स, कछुआ, शंख, स्वस्तिक, हाथी, गौ, वृषभ, इन्द्र, चन्द्र, सूर्य, छत्र, माला, ध्वजा, शिवलिंग, तोरण, हरिण, प्रासाद ( मन्दिर ), कमल, वज्र, गरुड या शिव की जटा के सदृश रेखा हो तो शुभदायक हैं ।
मूर्ति के किस २ स्थान पर रेखा ( दाग ) न होने चाहिये, उरूको वसुनंदिकृत प्रतिष्ठासार में कहा है कि
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"हृदये मस्तके भाले अंशयोः कर्णयोर्मुखे ! उदरे पृष्ठसंलग्ने हस्तयोः पादयोरपि ॥ एतेष्वङ्गेषु सर्वेषु रेखा लाञ्छननीलिका | बिम्बानां यत्र दृश्यन्ते त्यजेत्तानि विचक्षणः ॥ अन्य स्थानेषु मध्यस्था त्रासफाट विवर्जिता । निर्मल स्निग्धशान्ता च वर्णसारूप्यशालिनी || "
हृदय, मस्तक, कपाल, दोनों स्कंध, दोनों कान, मुख, पेट, पृष्ठ भाग, दोनों हाथ और दोनों पग इत्यादिक प्रतिमा के किसी अंग पर या सब अंगों में नीले आदि रंगवाली रेखा हो तो उस प्रतिमा को पंडित लोग अवश्य छोड़ दें । उक्त अंगों के सिवा दूसरे अंगों पर हो तो मध्यम है । परन्तु खराब, चीरा आदि दूषणों से रहित, स्वच्छ, चिकनी और ठंडी ऐसी अपने वर्ण सदृश रेखा हो तो दोषवाली नहीं है । धातु रत्न काष्ठ आदि की मूर्ति के विषय में आचारदिनकर में कहा है कि— "बिम्बं मणिमयं चन्द्र-सूर्यकान्तमणीमयम् । सर्व समगुणं ज्ञेयं सर्वामी रत्नजातिभिः ॥ "
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