Book Title: Vastusara Prakaran
Author(s): Bhagwandas Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 252
________________ ( २०४ ) वास्तुसारे जिनदेव की प्रतिष्ठा में द्विस्वभाव लग्न श्रेष्ठ है, स्थिर लग्न मध्यम और चर लग्न कनिष्ठ है। यदि चर लग्न अत्यंत बलवान शुभ ग्रहों से युक्त हो तो ग्रहण कर सकते हैं ॥७२॥ द्विस्वभाव मिथुन ३ कन्या ६ धन ९ मीन १२ उत्तम स्थिर वृष २ सिंह ५ वृश्चिक ८ कुंभ ११ मध्यम चर मेष १ | कर्क ४ ' तुला ७ मकर १० अधम सिंहोदये दिनकरो घटभे विधाता, नारायणस्तु युवतौ मिथुने महेशः । देव्यो द्विमूर्तिभवनेषु निवेशनीयाः, क्षुद्राश्चरे स्थिरगृहे निखिलाश्च देवाः ॥ ७३ ॥ सिंह लग्न में सूर्य की, कुंभ लग्न में ब्रह्मा की, कन्या लग्न में नारायण (विष्णु) की, मिथुन लग्न में महादेव की, द्विस्वभाववाले लग्न में देवियों की, चर लग्न में क्षुद्र (व्यतर आदि ) देवों की और स्थिर लग्न में समस्त देवों की प्रतिष्ठा करनी चाहो ॥ ७३ ॥ श्रीलल्लाचार्य ने तो इस प्रकार कहा है सौम्यैर्देवाः स्थाप्याः क्रूरैगन्धवपक्षरक्षांसि । गणपतिगणांश्च नियतं कुर्यात् साधारणे लग्ने ।। ७४ ॥ सौम्य ग्रहों के लग्न में देवों की स्थापना करनी और कर ग्रहों के लग्न में गन्धर्व, यक्ष और राक्षस इनकी स्थापना करनी तथा गणपति और गणों की स्थापना साधारण लग्न में करनी चाहिये ॥ ७४ ॥ ____ लग्न में ग्रहों का होरा नवमांशादिक बल देखा जाता है, इसलिये प्रसंगोपात यहां लिखता हूँ। प्रारम्भसिद्धिवार्तिक में कहा है कि-तिथि आदि के बल से चंद्रमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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