Book Title: Vastusara Prakaran
Author(s): Bhagwandas Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 251
________________ प्रतिष्ठादिक के मुहूर्त (२०१) रविजोग राजजोगे कुमारजोगे असुद्ध दिअहे वि । जं सुहकजं कीरइ तं सव्वं बहुफलं होइ ॥ ६७ ॥ अशुभ योग के दिन यदि रवियोग, राजयोग या कुमारयोग हो तो उस दिन जो शुभ कार्य किये जाय वे सब बहुत फलदायक होते हैं ॥ ६७ ॥ अयोगे सुयोगोऽपि चेत् स्यात् तदानी मयोगं निहत्यैष सिद्धिं तनोति । परे लग्नशुद्धया कुयोगादिनाशं, दिनाङ्केत्तरं विष्टिपूर्व च शस्तम् ॥ ६८॥ अशुभ योग के दिन यदि शुभ योग हो तो वह अशुभ यांग को नाश करके सिद्धि कारक होता है। कितनेक आचार्य कहते हैं कि लगशुद्धि से कुयोगों का नाश होता है । भद्रातिथि दिना के बाद शुभ होती है ॥ ६८ ॥ कुतिहि-कुवार-कुजोगा विट्ठी वि अ जम्मरिक्ख दतिही। मज्झएहदिणाओ परं सव्वंपि सुभं भवेवस्सं ॥६॥ दुष्टतिथि, दुष्टवार, दुष्टयोग, विष्टि (भद्रा), जन्मनक्षत्र और दग्धतिथि ये सब मध्याह्न के बाद अवश्य करके शुभ होते हैं ।। ६६ ॥ प्रयोगास्तिथिवारक्ष-जाता येऽमी प्रकीर्तिताः । लग्ने ग्रहबलोपेते प्रभवन्ति न ते क्वचित् ॥ ७० ॥ यत्र खग्नं विना कर्म क्रियते शुभसञ्ज्ञकम् । ततेषां हि योगानां प्रभावाजायते फलम् ॥ ७१ ॥ तिथि वार और नक्षत्रों से उत्पन्न होने वाले जो कुयोग कहे हुए हैं, वे सब बलवान ग्रह युक्त लग्न में कभी भी समर्थ नहीं होते हैं अर्थात् लग्नबल अच्छा हो तो कुयोगों का दोष नहीं होता। जहां लम बिना ही शुभ कार्य करने में आवे वहां ही उन योगों के प्रभाव से फल होता है ।। ७०-७१ ॥ लम विचार लग्नं श्रेष्ठं प्रतिष्ठायां क्रमान्मध्यमथावरम् । व्यङ्गं स्थिरं च भूयोभि-गुणैराख्यं चरं तथा ॥७२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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