Book Title: Vastusara Prakaran
Author(s): Bhagwandas Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 261
________________ - प्रतिष्ठादिक के मुहूर्त ( ५) सातवें स्थान के सिवाय कोई भी केन्द्र में रहा हो तो लग्न के हजार दोषों का नाश करता है और सूर्य रहित गुरु चार में से कोई केन्द्र में रहा हो तो लग्न के लाख दोषों का विनाश करता है ॥ १८ ॥ तिथिवासरनक्षत्रयोगलग्नक्षणादिजान् । सवलान् हरतो दोषान् गरुशुक्रौ विलग्नगौ ॥ ६ ॥ तिथि, वार, नक्षत्र, योग, लग्न और मुहूर्त से उत्पन्न होने वाले प्रबल दोषों को लग्न में रहे हुए गुरु और शुक्र नाश करते हैं ।। ६८ ॥ लग्नजातान्नवांशोत्थान करदृष्टिकृतानपि । हन्याजीवस्तनौ दोषान् व्याधीन् धन्वन्तरिर्यथा ॥ १० ॥ लग्न से, नवांशक से और क्रूरदृष्टि से उत्पन्न होने वाले दोषों को लग्न में रहा. हुमा गुरु नाश करता है, जैसे शरीर में रहे हुए रोगों को धन्वंतरी नाश करता है ।। १०० ॥ शुभप्रह की दृष्टि से क्रूरग्रह का शुभपन लग्नात् करो न दोषाय निन्द्यस्थानस्थितोऽपि सन् । दृष्टः केन्द्रत्रिकोणस्थैः सौम्यजीवसितैर्यदि ॥ १०१ ॥ क्रूरग्रह लग्न से निंदनीय स्थान में रहे हों, परन्तु केन्द्र या त्रिकोण स्थान में रहे हुए बुध, गुरु या शुक्र से देखे जाते हों अर्थात् शुभ ग्रहों की दृष्टि पड़ती हो तो दोष नहीं है ॥ १०१॥ कूरा हवंति सोमा सोमा दुगुणं फलं पयच्छति । जह पासह किंठियो तिकोणपरिसंहिओ वि गुरू । १०२॥ केन्द्र में या त्रिकोण में रहा हुआ गुरु यदि क्रूरग्रह को देखता हो तो वे करग्रह शुभ हो जाते हैं और शुभ ग्रहों को देखता हो तो वे शुभग्रह दुगुना शुभ फल देनेवाले होते हैं ॥ १०२॥ सिद्धछाया लम सिद्धच्छाया क्रमादर्का-दिषु सिद्धिप्रदा पदैः । रुद्ध-सार्द्धष्ट-नन्दाष्ट-ससभिचन्द्रवद् अयोः ॥ १०३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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