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वास्तुसारे
कूर्मशिला और नंदादिशिला का स्वरूप
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नेट
उस कूर्मशिला का स्वरूप विश्वकर्मा कृत क्षीरार्णव ग्रन्थ में बतलाया है कि कूर्मशिला के नव भाग करके प्रत्येक भाग के ऊपर पूर्वादि दिशा के सृष्टिक्रम से लहर, मच्छ, मेंडक, मगर, ग्रास, पूर्णकुंभ, सर्प और शंख ये आठ दिशाओं के भागों में और मध्य भाग में कछुवा बनाना चाहिये । कूर्मशिला
को स्थापित करके पीछे उसके ऊपर
पार - एक नाली देव के सिंहासन तक रखी जाती है, उसको प्रासाद की नाभि कहते हैं ।
प्रथम कूर्मशिला को मध्य में स्थापित करके पीछे ओसार में नंदा, भद्रा, जया, रिक्ता, अजिता, अपराजिता, शुक्ला, सौभागिनी और धरणी ये नव खुरशिला कूर्मशिला को प्रदक्षिणा करती हुई पूर्वादि सृष्टिक्रम से स्थापित करना चाहिये । नबवीं धरणी'शिला को मध्य में कूर्मशिला के नीचे स्थापित करना चाहिये । इन नन्दा आदि शिलाओं के ऊपर अनुक्रम से वज्र, शक्ति, दंड, तलवार, नागपास, ध्वजा, गदा और त्रिशुल इस प्रकार दिग्पालों का शस्त्र बनाना चाहिये और धरणी शिला के ऊपर विष्णु का चक्र बनाना चाहिये । शिला स्थापन करने का क्रम
"ईशानादग्निकोणाचा शिला स्थाप्या प्रदक्षिणा ।
मध्ये कूर्मशिला पश्चाद् गीतवादित्रमङ्गलैः ॥" प्रथम मध्म में सोना या चांदी की कूर्मशिला स्थापित करके पीछे जो आठ खुर शिला हैं, ये ईशान पूर्व अग्नि आदि प्रदक्षिण क्रम से गीत वाजींत्र की मांगलिक ध्वनि पूर्वक स्थापित करें।
१ कितनेक आधुनिक मिस्त्री लोग धरणी शिला को ही कूर्मशिला कहते हैं।
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