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वरंगचरिउ
क्षेत्र हिमालय से सिन्धु तक भारत का पश्चिमोत्तर प्रदेश ही है, परन्तु भरतमुनि के समय वहां अपभ्रंश एक प्रकार की बोली ही थी, जिसे विभाषा कहा गया है। उसने तब तक साहित्यिक रूप धारण नहीं कर पाया था और न वह अपभ्रंश विशेष रूप से प्रसिद्धि को पा सकी थी, किन्तु इसमें संदेह नहीं होना चाहिए कि इस भाषा ने परवर्ती काल में बड़ी उन्नति की है और उसने इतना अधिक विकास पाया कि विक्रम की 6वीं - 7वीं शताब्दी से कुछ समय पूर्व उसमें गद्य-पद्य में रचना होने लगी थी । कवि भामह (छठी शताब्दी का अन्तिम चरण) ने अपने काव्यालंकार में संस्कृत, प्राकृत की रचनाओं के साथ अपभ्रंश की गद्य-पद्यमय रचना का भी उल्लेख किया है।' अतः यहां हम कह सकते हैं कि छठी शताब्दी के अंतिम चरण में अपभ्रंश का अस्तित्व काव्य रूप में होने लगा था, जिसका निश्चय भामह के उल्लेख से भी हो जाता है ।
महाकवि दण्डी (7वीं सदी) ने भी संस्कृतेतर शब्दों को अपभ्रंश एवं काव्यों में अभीरादि की भाषा को भी अपभ्रंश माना है।' इसके साथ ही महाकवि ने समस्त उपलब्ध साहित्य को संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं मिश्र नामक चार भेदों में विभक्त कर' भामह द्वारा अपभ्रंश को काव्य के रूप में ही महत्ता का समर्थन किया है। उन्होंने अपभ्रंश काव्यों में प्रयुक्त होने वाले ओसरादि छन्दों का निर्देश करके अपभ्रंश साहित्य के समृद्धता की सूचना भी दी है।
उक्त कथन के निष्कर्ष में हम कह सकते हैं कि दण्डी के समय तक ग्रन्थकार संस्कृत के अतिरिक्त अन्य समस्त भाषाओं को अपभ्रंश कहते थे, जिसकी परम्परा का उल्लेख पतंजलि अपने महाभाष्य में किया है एवं जिन भाषाओं ने उस समय तक अपभ्रंश के नाम से काव्य क्षेत्र में प्रवेश प्राप्त कर लिया था, वे सब भाषाएँ आभीरादि जातियों की बोलियां थी। नाट्यकार भरतमुनि ने अभीरों की बोली को 'शाबरी' बतलाया है।' इस प्रकार ऐसा प्रतीत होता है कि अभी की शक्ति का .लोक में जैसे-जैसे विकास होता गया, वैसे-वैसे ही उनकी संस्कृति में भी चेतना का जागरण होता गया और फलतः उनकी काव्य कला की अभिव्यक्ति का माध्यम बन गई ।
जब कोई भी बोली व्याकरण एवं साहित्य के नियमों में आबद्ध हो जाती है, तब वह काव्यभाषा का रूप ग्रहण कर लेती है । उसका यह रूप परिनिष्ठित कहलाता है और वह काव्य के रम्य कलेवर में सुशोभित होने लगता है। अपभ्रंश भाषा की भी यही स्थिति है । सौराष्ट्र देश से प्राप्त होने वाले वलभी के राजा गुहसेन को संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश रूप भाषात्रय में प्रबन्ध रचना करने में निपुण बतलाया गया है ।
1. शब्दार्थौ सहितौ काव्यं गद्यं पद्यं च तद् द्विधा । संस्कृतं प्राकृतं चान्यदपभ्रंशः इति त्रिधा ।। काव्यालंका (136) 2. अभीरादिगिरः काव्येष्वपभ्रंश इति स्मृताः । शास्त्रे तु संस्कृतादन्यदपभ्रंश तयोदितम् ।। काव्यादर्श 1 / 36
3. तदेतद् वाङ्मयं भूयः संस्कृतं प्राकृतं तथा । अपभ्रंशश्च मिश्रं चेत्याहुरार्याश्चतुर्विधम् ।। काव्यादर्श 1 / 32
4. संस्कृतं सर्गबन्धादि प्राकृतं स्कन्धकादि यत् । ओसरादिरपभ्रंशो नाटकादि तु मिश्रकम् ।। काव्यादर्श 1 / 37
5. अभीरोक्तिः शाबरी स्यात्...........।। नाट्यशाला 18-44
6. संस्कृतप्राकृतापभ्रंशभाषात्रय प्रतिबद्ध प्रबन्ध रचना निपुणान्तः करणः । इण्डियन एण्टीक्वेरी, संस्करण-अक्टू, सन् 1881, पृ. 284