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विद्वानों ने अध्ययन कहा है। यदि दूसरे शब्दों में कहें तो विशुद्ध आध्यात्मिकता का सम्पादन करना ही वास्तविक अध्ययन अथवा उसका सुचारु फल है। इसी आशय से चूर्णीकार ने - 'सम्यग्दर्शन - ज्ञानचारित्रात्मकानि चोत्तराध्ययनानि' ऐसा उल्लेख किया है। यहां पर अध्ययन से शास्त्रकारों का अभिप्राय भावाध्ययन से है। कारण कि भावाध्ययन से ही यह आत्मा कर्म-बन्धन से मुक्त होकर अपने निज स्वभाव में रमण करने की योग्यता प्राप्त कर सकता है। मन, वाणी और शरीर के शुभ व्यापार से भाव-पूर्वक जो अर्थ चिन्तन है, उसी का नाम भावाध्ययन है । इसी भावाध्ययन से यह आत्मा स्वोपार्जित कर्म-दलिकों का क्षय करके अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त करता है । निम्नलिखित निर्युक्ति-गाथा इसी भाव को अर्थात् भावाध्ययन के स्वरूप और फल को व्यक्त कर रही है । यथा
द्रव्याध्ययन करता
अट्ठविहं कम्मरयं पोराणं, जं खवेइ जोगेहिं । एयं भावज्झयणं, णेयव्वं आणुपुव्वीए ॥१ परन्तु भावाध्ययन' द्रव्याध्ययनपूर्वक होता है, अर्थात् यह जीव शुभ न हुआ भावाध्ययन में प्रवेश करता है तथा भावाध्ययन से पूर्व संचित कर्मों का क्षय हो जाता है और आगे के लिए नए कर्मों का बन्धन नहीं होता। इस प्रकार उभयविध — सत्तागत और बध्यमान कर्मों से मुक्त होता हुआ यह जीवात्मा अपने स्वभाव में रमण करने लगता है। अतः अध्ययन शब्द की यह पूर्वोक्त निरुक्ति (आत्मा को स्व-स्वभाव में लाना) ठीक ही प्रतीत होती है, अथवा रूढ्यर्थ को मानकर अध्यात्म का अर्थ यहां पर प्रशस्त मन है । तात्पर्य यह है कि जिसके द्वारा मन की प्रशस्त प्रवृत्ति हो, क्लिष्ट कर्मों के विनाशार्थ तदनुसार उपयुक्तता - पूर्वक वैराग्य भाव धारण किया जाए, उसको अध्ययन कहते हैं ।
(२) अथवा जिसके द्वारा जीवाजीवादि पदार्थों का सम्यग्बोध हो जाए तथा आत्मा को जिसके
(१) छाया— अष्टविधं कर्मरजः पुराणं यत् क्षपयति योगैः ।
एतद् भावाध्ययनं, नेतव्यम् आनुपूर्व्या ॥ १ ॥
व्याख्या - " अष्टविधम् " अष्टप्रकारकं क्रियत इति कर्म — ज्ञानावरणादि, रंज इव रजो जीवशुद्धस्वरूपान्यथात्वकरणेन, इह चोपमावाचकशब्दमन्तरेणापि परार्थप्रयुक्तत्वात् अग्निर्माणवक इतिवदुपमानार्थोऽवगन्तव्यः । कर्मरज इति समस्तं वा पदं, "पुराणं" अनेकभवोपात्तत्वेन चिरन्तनं यत् — यस्मात् क्षपयति जंतुः 'योगैः' भावाध्ययनचिन्तनादिशुभव्यापारैः तस्मादिदमेव भावरूपत्वात् क्षपणाहेतुत्वाद् भावक्षपणेत्युच्यते इति प्रक्रमः । प्रकृतमुपसंहर्तुमाह — 'एतद' इत्युक्तपर्यायाभिधेयं भावाध्ययनं 'नेतव्यं' प्रापयितव्यम् आनुपूर्व्या शिष्यप्रशिष्यपरंपरात्मिकायाम्। यद्वा, 'नेतव्यं' संवेदनविषयतां प्रापणीयमानुपूर्व्या क्रमेणेति ।
२. “दव्वज्झयणे ? पत्तयपोत्थय लिहियं" अर्थात् पत्र और पुस्तक पर लिखा हुआ द्रव्याध्ययन कहलाता है। (अनु० सू० १५० )
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 16 / प्रस्तावना