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राजर्षि नमि का वर्णन है, अतः उसी के नाम से यह अध्ययन प्रसिद्ध है। गौतमकेशीय अध्ययन में गौतम स्वामी और केशिकुमार के प्रश्नोत्तरों की चर्चा है, अतः यह अध्ययन गौतम केशीय के नाम से विख्यात है और आर्द्रक अध्ययन में आर्द्रक कुमार की कथा वर्णित है, अतः यह अध्ययन भी उसी के नाम से ख्याति को प्राप्त हुआ है। तात्पर्य यह है कि जिस अध्ययन व उद्देश्य का नामकरण उसमें वर्णन किए गए विषय के अनुसार किया गया हो, उसे प्रकरण-सूत्र कहते हैं। यह उपरोक्त भेद-कथन नियुक्तिकार ने किया है। इसके अतिरिक्त यहां पर इतना स्मरण अवश्य रहे कि सूत्रों के ये उक्त प्रकार के तीन भेद, वर्णनीय विषय को लेकर किये गये हैं, अर्थात् सूत्र-ग्रन्थों में जो-जो विषय वर्णित हुए हैं उनमें क्रियाकांड से सम्बन्ध रखने वाला कारक-सूत्र के नाम से अभिहित होगा और संज्ञा तथा प्रकरणानुसारी विषय को संज्ञा और प्रकरण सूत्र माना जाएगा। इसलिए एक ही सूत्र ग्रन्थ में उक्त प्रकार के तीनों ही लक्षण चरितार्थ हो जाते हैं। इस प्रकार सूत्रों के संज्ञा, कारक और प्रकरण ये तीन मुख्य भेद माने गए हैं। इनमें से प्रत्येक के उत्सर्ग, अपवाद, उत्सर्गापवाद और अपवादोत्सर्ग रूप से चार भेद और होते हैं। इनका भी संक्षेप से नियुक्त्यनुसारी वर्णन नीचे दिया जाता है
(१) उत्सर्ग सूत्र जिसमें किसी प्रकार की क्रिया या विधि-विशेष का स्वतन्त्रता-पूर्वक सामान्य वर्णन हो उसे उत्सर्ग-सूत्र कहते हैं—नो कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा आमे तालपलंबे अभिन्ने पडिग्गाहित्तए" अर्थात् साधु और साध्वी को ताल वृक्ष के फल का निषेध किया गया है, अतः यह उत्सर्ग-सूत्र कहलाता है।
२. अपवाद-सूत्र—जिसमें उत्सर्ग—सामान्य विधि का बोध हो उसका नाम अपवाद है। यथा-"कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा पक्के तालपलंबे भिन्ने अभिन्ने वा पडिग्गाहितए," अर्थात् साधु और साध्वी को ताल वृक्ष का पका हुआ भिन्न वा अभिन्न फल ग्रहण करना कल्पता है। इसमें ताल वृक्ष के पके हुए भिन्न अथवा अभिन्न सभी प्रकार के फलों को साधु और साध्वी के लिए ग्राह्य बताया गया है, अतः पूर्वोक्त निषेध की सामान्य विधि का बाधक होने से अपवाद संज्ञा है।
. (३) उत्सर्गापवाद सूत्र—जिसमें उत्सर्ग और अपवाद—सामान्य और विशेष दोनों विधियों का विधान हो, उसे उत्सर्गापवाद कहते हैं। तात्पर्य यह है कि सामान्य रूप से निषेध किए गए किसी विशेष कार्य के लिए विधान कर देना उत्सर्गापवाद है। जैसे किसी भी साधु अथवा साध्वी को प्रथम प्रहर में लाए हुए आहार-पानी को चौथे प्रहर तक रखने और ग्रहण करने का निषेध है, परन्तु किसी विशेष. कारण (रोगादि विशेष) के उपस्थित हो जाने पर उसके रखने और ग्रहण करने का भी विधान है, अर्थात् वह रखा भी जा सकता है। इसी को उत्सर्गापवाद कहते हैं। निम्नलिखित सूत्र पाठ में इसी बात को दर्शाया गया है। यथा
___ "नो कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा परियासियस्स आहारस्स जाव तयप्पमाणमित्तमवि भूतिपमाणमित्तमवि बिंदुप्पमाणमित्तमवि आहारभाहारित्तए, नन्नत्थ आगाढेसु रोगायंकेसु”।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 27 / प्रस्तावना