________________
अर्थात् साधु और साध्वी को प्रथम प्रहर में लाए हुए आहार-पानी में से चतुर्थ प्रहर में एक ग्रास और बिन्दुमात्र भी ग्रहण करना नहीं कल्पता, परन्तु किसी रोगादि विशेष कारण के उपस्थित हो जाने पर वह ग्रहण भी कर सकता है। यहां पर सामान्य और विशेष दोनों विधियों का एक ही सूत्र में वर्णन किया गया है। इसीलिए इनकी संज्ञा उत्सर्गापवाद है।
(४) अपवादोत्सर्ग-सूत्र—जिसमें अपवाद और उत्सर्गविधि—विशेष और सामान्य विधि का विधान हो, उसे अपवादोत्सर्ग कहते हैं। जैसे कि साधु-वृत्ति की द्वादश प्रतिमाएं हैं। सामान्य साधु-वृत्ति की अपेक्षा उनके नियम कुछ कठिन हैं। वे नियम सब साधुओं के लिए कथन नहीं किए गए, किन्तु जिन आत्माओं ने उन नियमों को धारण किया है, उन्हीं से वे सम्बन्ध रखते हैं। उन नियमों का यथाविधि पालन करने के अनन्तर फिर सामान्य वृत्ति में आ जाना, इसी का नाम अपवादोत्सर्ग है, स्कन्धादिक मुनि की भांति । यदि संक्षेप से कहें तो विशेष से सामान्य में प्रवेश करना अपवादोत्सर्ग कहलाता है। ___ शंका–उपरोक्त वर्णन से अपवादोत्सर्ग का स्वरूप तो ध्यान में आ जाता है, जैसे कि प्रतिमा का धारण न करना अपवाद है और सामान्य साधु-वृत्ति' का यथा विधि पालन करना उत्सर्ग है। एवं साधु की द्वादश प्रतिमाओं में से अमुक प्रतिमा का वहन करके फिर सामान्य साधु वृत्ति में प्रवेश करना अपवादोत्सर्ग है, परन्तु इस प्रकार से तो वह साधु शिथिल कहलायेगा। कारण कि उसने प्रथम उच्च वृत्ति को ग्रहण करके फिर सामान्य वृत्ति में प्रवेश कर लिया है। ऐसी दशा में तो उसे शिथिल ही कहना होगा?
समाधान—पूर्वोक्त शंका का समाधान यह है कि सामान्य वृत्ति तो सबके लिए प्रतिपादन की गई है। यदि उस वृत्ति में कोई न्यूनता करे, तब तो उसे शिथिल कहा जा सकता है और यदि कोई सामान्य वृत्ति का यथावत् पालन करता हुआ कुछ समय के लिए और आगे बढ़कर फिर उसी सामान्य वृत्ति में आ जाता है, तो उसको शिथिल नहीं कहा जा सकता। जैसे—कोई पुरुष किसी दूर स्थित नगर में पहुंचने की इच्छा से उसकी ओर भागता हुआ चला जाता है, परन्तु अधिक भागने से जब वह मार्ग में थक जाता है तो फिर द्रुत गति को त्याग कर वह अपनी स्वभाव-सिद्ध मूल गति में होकर चलने लगता है। तात्पर्य यह है कि यदि वह भागता ही चला जाए तो उसका जीवित रहना कठिन हो जायेगा और यदि मार्ग में ही बैठ जाए तब उसको अभीष्ट स्थान की प्राप्ति नहीं हो सकती. इसलिए वह शीघ्र गति—अत्यन्त भागने को छोड़कर और बैठने को भी त्याग कर अपनी स्वभाव-सिद्ध मूल गति से चलता हुआ कुछ समय के बाद अपने गन्तव्य स्थान को प्राप्त कर लेता है। ठीक इसी प्रकार जो आत्मा अपवाद-मार्ग में आरूढ़ होकर फिर उत्सर्ग-मार्ग में आ जाते हैं, वे "धावति" क्रिया द्रुतगति को छोड़कर “गच्छति' क्रिया सामान्य गति में प्रविष्ट होते हैं। 'धावति' का अर्थ
१. सामान्य साधुवृत्ति—पांच व्रत, पंचविध आचार, पांच समिति, तीन गुप्ति और दशविध श्रमण-धर्म का पालन करना।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 28 / प्रस्तावना