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पढ़ते हैं तथा जो अभव-सिद्धिक ग्रन्थिक-सत्त्व (जिनका ग्रन्थिभेद नहीं हुआ) और अनन्त-संसारी जीव हैं वे अत्यन्त क्लिष्ट अशुभ कर्मों के कारण उत्तराध्ययन सूत्र का अध्ययन करने के अयोग्य हैं। इसलिए जिनेन्द्र देव के कथन किए गए शब्द और अर्थ के अनन्त पर्याय वाले इस उत्तराध्ययन सूत्र के अध्ययनों को यथाविधि उपधानादि तप के द्वारा गुरुजनों की प्रसन्नता से पढ़े, इत्यादि ।
प्रथम गाथा में अन्वय और दूसरी गाथा में व्यतिरेक से उत्तराध्ययन के माहात्म्य का वर्णन है, तथा च जिनका संसार-भ्रमण बहुत अल्प रह गया है और मोक्ष प्राप्ति का समय जिनके नजदीक है, ऐसे भव्यात्माओं को ही इन अध्ययनों को भाव- पूर्वक पढ़ने का अवसर प्राप्त होता है। तात्पर्य यह है कि ग्रन्थिभेद के अनन्तर जिनको सम्यक्त्व की प्राप्ति हो चुकी है, ऐसे भव्यात्मा जीव ही इसके अध्ययन से मुक्ति का लाभ प्राप्त करते हैं और शेष आत्माओं का अध्ययन तो केवल व्यवहार मात्र है । उनको इसके अध्ययन का मोक्षरूप फल प्राप्त नहीं होता तथा जो अनन्त संसारी अभव्य आत्मा हैं, अर्थात् जिनका ग्रन्थिभेद नहीं हुआ, उनको इसका भाव - पूर्वक अध्ययन प्राप्त नहीं होता एवं जो अत्यन्त क्लिष्ट कर्म युक्त दीर्घसंसारी भव्यात्मा हैं वे भी भाव - पूर्वक इसके अध्ययन के अयोग्य हैं। तात्पर्य यह है कि जो अल्पसंसारी भव्यात्मा हैं उन्हीं के हृदय में इसके पढ़ने की रुचि उत्पन्न होती है और जो अनन्त - संसारी अभव्य तथा दीर्घ- संसारी भव्य जीव हैं, उनको इसका अध्ययन भाव से प्राप्त नहीं होता । यदि वे पढ़ते भी हैं तो उनका पठन केवल व्यवहार मात्र ही है, उससे इच्छित लाभ नहीं होता। इस प्रकार अन्वयव्यतिरेक से उत्तराध्ययन के पाठ का महत्व बताने के साथ-साथ नियुक्तिकार भव्य और अभव्य जीवों का लक्षण भी बता दिया है।
तीसरी गाथा में इसको जिनेन्द्र-भाषित कहा तथा शब्द और अर्थ के अनन्त पर्यायों से युक्त बताया और पूर्ण विनय से गुरुजनों के समीप बैठकर विधि- पूर्वक अध्ययन करने का आदेश दिया गया है, जिससे प्रस्तुत सूत्र की महिमा अनायास ही व्यक्त हो जाती है। इसके अतिरिक्त उक्त गाथा से यह भी ध्वनित होता है कि श्रुत का अध्ययन गुरुमुख से ही करना चाहिए तथा भक्ति और विनयादि से गुरुजनों को सदा प्रसन्न रखना चाहिए ।
इस प्रकार नियुक्ति की उक्त तीन गाथाओं को उद्धृत करके बृहद्वृत्तिकार ने उनकी उपर्युक्त व्याख्या की है, परन्तु सूत्र की दीपिका टीका में निम्नलिखित अन्य दो गाथाएं और भी उपलब्ध होती
। यथा
जोगविहीए वहिया एए, जो लहइ सुत्तमत्थं वा । भाइ भवियजणो, सो पावेइ निज्जरा बहुला ॥ १ ॥ जस्साढत्ता एए, कहवि समप्पंति विग्घरहियस्स । सो लक्खिज्जइ भव्वो, पुव्वरिसी एवं भाति ॥ २ ॥
दीपिका—स भव्यजनो विपुलां निर्जरां प्राप्नोति । सः कः – यो योगविधिं वाहयित्वा योगोपधान
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 35 / प्रस्तावना