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की इच्छा रूप कुल्हाड़ी से काट दी जाए, उसका नाम निदान है। तद्भिन्न अर्थात् जिस कर्म में ऐहिक अभ्युदय की वासना न हो उसे अनिदान कहते हैं। तात्पर्य यह कि निदान-रहित क्रियानुष्ठान से यह जीव भविष्यत् काल में कल्याण रूप कर्मों का उपार्जन करता है।
(२) दिट्ठिसंपन्नताते (दृष्टिसम्पन्नतया)—सम्यग्दृष्टि का सम्पादन करने से ।
(३) जोगवाहियत्ताते' (योगवाहितया) श्रुतोपधान तप से अथवा समाधि से सर्वत्र उत्सुकता के परित्याग से।
(४) खंतिखमणताते (क्षान्त्या) क्षमा करने से । (५) जितिंदियताते (जितेन्द्रियतया)—इन्द्रियों के निग्रह से । (६) अमाइल्लताते (अमायिकतया निष्कपटतया)—छल का परित्याग करने से । (७) अपासत्थताते (अपार्श्वस्थतया)—ज्ञान, दर्शन और चारित्र की पूर्णतया शुद्धि करने से। (८) सुसामण्णताते (सुश्रामण्यभावतया)—शुद्ध संयम के पालन से। (६) पवयणवच्छलताते (प्रवचनवत्सलतया)-द्वादशांग अथवा श्रीसंघ की वत्सलता करने से ।
(१०) पवयणउब्भावणया (प्रवचनोद्भावनया))—धर्मोपदेशादि के द्वारा प्रवचन की प्रभावना करने से आगामी जन्मों में यह जीव भद्र-कर्मों का उपार्जन करता है।
अतः आगामी काल में सुलभबोधि और कल्याणप्रद कर्मों की उपार्जना के लिए श्रुत रूप प्रवचन की अवश्य प्रभावना करनी चाहिए, परन्तु श्रुत की प्रभावना करने की योग्यता तब तक नहीं हो सकती, जब तक कि विधि-पूर्वक श्रुत का अध्ययन न किया जाए। इसलिए विधि-पूर्वक श्रुत का अध्ययन करना मुमुक्षु जनों का सबसे पहला कर्तव्य है। प्रस्तुत टीका लिखने का प्रयोजन
यद्यपि प्रस्तुत सूत्र की छोटी-बड़ी टीकाएं तथा गुजराती और इंगलिश आदि भाषाओं में बहुत से अनुवाद मुद्रित हो चुके हैं, परन्तु हिन्दी भाषा-भाषी पाठकों के लिए हिन्दी भाषा में एक ऐसी टीका की बड़ी आवश्यकता थी कि जिसमें मूल, छाया, पदार्थान्वय, मूलार्थ और विस्तृत विवेचन हो। विक्रम सम्वत् १६७१ में जब मैं अनुयोगद्वार सूत्र की हिन्दी भाषा में व्याख्या कर रहा था, उस समय मेरे स्वर्गीय शिष्य मुनि ज्ञानचन्द्र ने मुझसे प्रस्तुत सूत्र की हिन्दी में व्याख्या करने के लिए विनय-पूर्वक बहुत आग्रह किया। अतएव मुनि ज्ञानचन्द्र की तीव्र प्रेरणा से और जिन-प्रवचन में उत्तराध्ययन सूत्र को अधिक शिक्षा-प्रद समझकर हिन्दी भाषा-भाषी पाठकों को इसका लाभ मिल सके, इस उद्देश्य से मैंने इस कार्य का आरम्भ कर दिया, परन्तु “श्रेयांसि बहुविघ्नानि' इस सूक्ति के अनुसार कई एक १. योगवाहित्तया श्रुतोपधानकारितया योगेन वा समाधिना सर्वत्रानुत्सुकत्वेन क्षणेन वहतीत्येवंशीलो योगवाही तद्भावस्तत्ता तया।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 37 / प्रस्तावना