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सुत्वा रुसितो बहुं, वाचं समणाणं पुथु वचनानं । करुसेन न परिवज्जा, नहि संतो परिसेनि करोति ॥
न ब्राह्मणस्स पहरेय्यं, नास्स मुञ्चेथ ब्राह्मणो । धि ब्राह्मणस्स हंतारं ततो धि यस्स मुंचति ॥
(धम्मपद ब्राह्म० व० २६, गा० ७)
इस प्रकार उत्तराध्ययन सूत्र की अनेक गाथाएं धम्मपद में संग्रहीत हुई हैं। इसमें कतिपय तो शब्द रूप ग्रहण की गई हैं और कई एक का अर्थ रूप में संग्रह किया गया है । इनके अतिरिक्त अन्य बौद्ध ग्रन्थों में भी जैन साहित्य प्रतिबिंबित हुआ देखा जाता है । बुद्ध के अन्य जातकों में बहुत सी कथाएं ऐसी उपलब्ध होती हैं जिनका संग्रह जैन सूत्रों से किया गया है। उदाहरणार्थचित्तसम्भूत जातक में उत्तराध्ययन सूत्र के १३ वें अध्ययन का विषय संग्रहीत हुआ है । अंगुत्तरिका नाम के बुद्धजातक में आयें हुए एक गद्य पाठ की भी उत्तराध्ययन सूत्र के निम्नलिखित गद्य पाठ से पाठक तुलना करें।
(सुत्तनिपात ६३२)
(१) नो निग्गंथे इत्थीणं कुड्डतरंसि वा दूसंतरंसि वा भित्तंतरंसि वा कूइअसद्दं वा रुइअसद्दं वा गीयसद्दं वा हसियसद्दं वा थणियसद्दं वा कंदिअसद्दं वा विलवियसद्दं वा सुणित्ता हवइ से निग्गंथे । तं कहमिति चे ? आयरिय आह— निग्गंथस्स खलु इत्थीणं कुड्डतरंसि वा जाव विलवियसद्दं वा सुणेमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा जाव केवलिपण्णत्ताओ वा धम्माओ भंसिज्जा, तम्हा खलु निग्गंथे नो इत्थीणं कुड्डतरंसि जाव सुणेमाणे विहरेज्जा । (उत्तराध्ययन सूत्र, अ० १६)
(१) अपि च खो मातुगामस्स सद्दं सुणाति तिरो कुड्डा वा तिरो परकारा वा हसंतिया वा भांतिया वा गायंतिया वा रोदंतिया वा सो तदस्साहेति तन्निकामेति तेन च वित्तिं आपज्जति इदंपि खो ब्रह्मचारिस्स खण्डंपि छिद्दपि वा सबलंपि कम्मासंपि अयं वुच्चति ब्रह्मणो अपरिसुद्धं ब्रह्मचारियं चरति संतुत्तो मैथुनेन संयोगेन न परिमुच्चति जातिया जरामरणेन सो केहि परिदेवेहि दुक्खेहि.........न परिमुच्चति दुक्खस्मादिति वदामी। (अंगु० ७ वग्ग ५)
उत्तराध्ययन का माहात्म्य
उक्त लेखों से उत्तराध्ययन सूत्र की उपयोगिता को तो पाठक अब अच्छी तरह से समझ ही गए होंगे तथा बौद्ध ग्रन्थों में उसका उपयोग कहां तक हुआ है, इस बात का भी उन्हें उपर्युक्त पाठों में भली-भांति परिचय मिल चुका होगा ।
अब पाठकों को निम्नलिखित नियुक्ति गाथाओं के द्वारा इस ग्रन्थ के माहात्म्य का परिचय दिया जाता है। उत्तराध्ययन के महत्व को सूचित करने वाली तीन गाथाओं का नियुक्तिकार ने उल्लेख किया है । यथा : -
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 33
/ प्रस्तावना