________________
दर्शन शुद्ध है, उसी का चारित्र निर्मल अथवा सुदृढ़ हो सकता है। इसी आशय से आगमों' में कहा है कि जो व्यक्ति शुद्ध जीव और शुद्ध अजीव तथा जीवाजीव आदि को भली-भांति जानता है, वही संयम मार्ग में निष्णात हो सकता है। इससे सिद्ध हुआ कि दर्शन-शुद्धि के द्वारा ही सम्यक् चारित्र की उपलब्धि हो सकती है और जिन आत्माओं का दर्शन शुद्ध नहीं, उनका चारित्र भी निर्मल नहीं। इस प्रकार उक्त तीनों अनुयोग चारित्र की रक्षा के लिए अभिहित हुए हैं और उनमें से दूसरा जो धर्मानुयोग है, उसका वर्णन करने वाला यह उत्तराध्ययन सूत्र है। उत्तराध्ययन शब्द की व्युत्पत्ति
'उत्तराध्ययन' इस वाक्य में उत्तर और अध्ययन ये दो शब्द हैं। इनमें उत्तर शब्द का प्रधान अर्थ भी होता है और पश्चाद्भावी भी। तब प्रधान अर्थ में उक्त वाक्य का यह अर्थ हुआ कि उत्तर—प्रधान अर्थात् धर्म-सम्बन्धी विषय में एक से एक बढ़कर हैं अध्ययन–प्रकरण जिसमें, उस शास्त्र का नाम उत्तराध्ययन है। उक्त सूत्र के अध्ययनों—प्रकरणों की संख्या ३६ है.। इस बात का उल्लेख प्रस्तुत सूत्र के अन्त में तथा समवायाङ्ग सूत्र के ३६वें स्थान में किया गया है और उत्तर शब्द का पश्चाद्भावी, उत्तर अर्थात् पश्चात् पढ़ा जाने वाला यह अर्थ भी होता है। प्राचीन समय में आचारांगादि सूत्रों से इस सूत्र की रचना पीछे से हुई है, कारण कि श्री श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने इसको अन्त समय में कहा है। इसलिए इन अध्ययनों के समुदाय की उत्तराध्ययन संज्ञा हुई। सम्प्रतिकाल में दशवैकालिक सूत्र के पश्चात् इस सूत्र के अध्ययन की प्रथा प्रचलित हो रही है, इस हेतु से भी इसका ‘उत्तराध्ययन' यह नाम सार्थक प्रतीत होता है। .
१. जो जीवेवि बियाणेइ, अजीवेवि वियाणइ |
__जीवाजीवे वियाणतो, सो हु नाहीइ संजमं ॥ (दशवैका० अ० ४ गा० १३) २. छत्तीस उत्तरज्झाए भवसिद्धीय संमए । (अ० ३६ गा० २७०)
३. छत्तीसं उत्तरज्झयणा प० तं०-१. विणयसुयं, २. परीसहो, ३. चाउरंगिज्जं, ४. असंखयं, ५. अकाममरणिज्जं, ६. पुरिसविज्जा, ७. उरब्भिज्ज, ८. काविलियं, ६. नमिपव्वज्जा, १०. दुमपत्तयं, ११. बहुसुयपूजा, १२. हरिएसिज्ज, १३. चित्तसंभूयं, १४. उसुयारिज्ज, १५. सभिक्खुगं, १६. समाहिठाणाई, १७. पावसमणिज्ज, १८. संजइज्जं, १६. मियचारिया, २०. अणाहपव्वज्जा, २१. समुद्दपालिज्जं, २२. रहनेमिज्जं, २३. गोयमकेसिज्ज, २४. समितीओ, २५. जन्नतिज्जं, २६. सामायारी, २७. खलुंकिज्जं, २८. मोक्खमग्गई, २६. अप्पमाओ, ३०. तवोमग्गो, ३१. चरणविही, ३२. पमायठाणाइं, ३३. कम्मपयडी, ३४. लेसज्झयणं, ३५. अणगारमग्गो, ३६. जीवाजीवविभत्ती य। ४. इसी आशय को नियुक्ति की निम्नलिखित गाथा में व्यक्त किया गया है। यथा
कम उत्तरेण पगयं, आयारस्सेव उपरिमाइं तु । तम्हा उ उत्तरा खलु अज्झयणा हुंति णायव्वा ||
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 14 / प्रस्तावना