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के अनन्तर निर्वाण-पद को प्राप्त किया और कल्पसूत्र का निम्नलिखित पाठ भी इसी बात का समर्थन कर रहा है। यथा
"तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे तीसं वासाइं अगार-वासमझे वसित्ता साइरेगाई दुवालसवासाइं छउमत्थपरियायं पाउणित्ता, देसूणाई तीसं वासाइं केवलिपरियायं पाउणित्ता, बायालीसं वासाइं सामण्णपरियायं पाउणित्ता, बावत्तरि वासाइं सव्वाउयं पाउणित्ता, खीणे वेयणिज्जाउनामगुत्ते इमीसे उस्सप्पिणीए दुसमसुसमाए बहुविइक्कंताए तिहिं वासेहिं अद्धनवमेहिं य मासेहिं सेसेहिं पावाए मज्झिमाए हत्थिपालस्स रन्नो रज्जुगसभाए एगे अवीए छठेणं भत्तेणं अपाणएणं साइणा नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं पच्चूसकाल-समयंसि संपलियंकनिसन्ने पणपन्नं अज्झयणाइं कल्लाणफलविवागाई पणपन्नं अज्झयणाई पावफलविवागाइं छत्तीसं अपुट्ठवागरणाई-वागरित्ता पहाणं नाम अज्झयणं विभावमाणे विभावेमाणे कालगए विइक्कंते समुज्जाए छिन्नजाइ-जरामरणबंधणे सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिनिव्वुडे सव्वदुक्खप्पहीणे" । **
इस पाठ का आशय यह है कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी तीस वर्ष तक़ तो गृहस्थाश्रम में
★ प्रश्न ६४-जैनमत में रूढ़ि से अनेक लोग जो यह कहते हैं कि उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययन दीपमाला की रात्रि में कथन करके और सैंतीसवां अध्ययन कथन करते हुए श्री श्रमण भगवान् मोक्ष को प्राप्त हो गए, यह कथन सत्य है या नहीं?
उत्तर—यह कथन सत्य नहीं है, क्योंकि यह कल्पसूत्र की मूल टीका से सिद्ध है और श्री भद्रबाहू स्वामी ने उत्तराध्ययन की नियुक्ति में ऐसा कथन किया है कि उत्तराध्ययनसूत्र का दूसरा परीषहाध्ययन तो कर्म प्रवाद पूर्व के सत्तरहवें पाहुड़ से उद्धार करके रचा गया है और आठवां अध्ययन श्री कपिल केवली ने रचा है और दसवां अध्ययन जब गौतम स्वामी अष्टापद से लौटकर आए थे, तब भगवन्त ने गौतम को धैर्य देने के लिए चम्पा नगरी में कथन किया था और २३वां अध्ययन केशीगौतम के प्रश्नोत्तर रूप में स्थविरों ने रचा है। अनेक अध्ययन प्रत्येक बुद्ध मुनियों के रचे हुए हैं और अनेक जिन-भाषित हैं। इसलिए उत्तराध्ययन दीपमाला की रात्रि में कथन किया सिद्ध नहीं होता है (जैन धर्म विषयक प्रश्नोत्तर पृ० १२२) यह पाठ चूर्णी और नियुक्ति गाथा की व्याख्या रूप से उल्लेख किए गए संस्कृत पाठ का प्रायः अनुवाद मात्र ही है। लेखक
(१) इति पाउकरे बुद्धे, नायए परिनिव्वुए |
छत्तीसं उत्तरज्झाए, भवसिद्धीय संमए || (गाथा २७०) इससे प्रतीत होता है कि उत्तराध्ययन भगवान महावीर स्वामी का अन्तिम उपदेश है, इसके बाद उनका निर्वाण हो गया।
** तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान महावीरः त्रिंशद्वर्षाणि गृहस्थावस्थामध्ये उषित्वा समधिकानि द्वादशवर्षाणि छद्मस्थपर्यायं पालयित्वा, किंचिदूनानि त्रिंशद्वर्षाणि केवलिपर्यायं पालयित्वा, द्विचत्वारिंशद्वर्षाणि चारित्रपर्यायं पालयित्वा, द्विसप्ततिवर्षाणि सर्वायुः पालयित्वा, क्षीणेषु सत्सु वेदनीयायुर्नामगोत्रेषु चतुर्षु भवोपग्राहिककर्मसु अस्याम् अवसर्पिण्याम् दुषमसुषमा इति नानक चतुर्थे अरके बहुव्यतिक्रान्ते सति त्रिषु वर्षेषु सार्धाष्टसु च मासेषु शेषेषु सत्सु पापायां मध्यमायां हस्तिपालस्य राज्ञः लेखकसभायाम्, एकः सहायविरहाद् अद्वितीयः, एकाकी एव, नतु ऋषभादिवत् दशसहस्रपरिवार इति.........................षष्ठेन भक्तेन जलरहितेन स्वातिनक्षत्रेण सह चन्द्रयोगे उपागते सति प्रत्यूषकाले
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 18 । प्रस्तावना