Book Title: Updesh Mala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 12
________________ अप्पा जाणइ अप्पा, जहट्ठिओ अप्पसक्खिओ धम्मो । अप्पा करेइ तं तह, जह अप्पसुहावओ होइ ॥२३॥ आत्मा ही स्वयं को यथावस्थित् जैसा है वैसा, शुभ या अशुभ परिणाम युक्त है उसे स्वयं आत्मा ही जानता है, दूसरों के लिए चित्तवृत्ति अलक्ष्य होने से। अतः धर्म आत्मसाक्षीक है, स्वतः वैद्य है। अतः हे आत्मन्! धर्म निष्कपट भाव से वैसा कर जिससे आत्मा इस और परभव में सुखी बनें ।।२३।। जं जं समयं जीयो, आविसइ जेण जेण भावेण । सो तंमि तंमि समए, सुहासुहं बंधए कम्मं ॥२४॥ आत्मा जिस-जिस समय में सूक्ष्म-सूक्ष्मतर-सूक्ष्मतम भावों में अध्यवसायों में प्रवृत्त होता है, आसक्त होता है। उस-उस समय में वैसा परिणमन होता हुआ शुभ-अशुभ कर्म बांधता है। शुभ परिणाम से शुभ, अशुभ परिणाम से अशुभ। अतः सतत शुभ परिणाम में ही रहना चाहिए। गर्व-अभिमानादि के परिणाम नहीं आने चाहिए ।।२४।। ... गर्वादि से धर्म दूषित हो जाता है उसका फल नहीं मिलता यह आगे की गाथा में दर्शाते हैं धम्मो मएण हुँतो, तो नवि सीउण्हवायविज्झडिओ । . संवच्छरमणसिओ, बाहुबली तह किलिस्संतो ॥२५॥ ...जो धर्म गर्व से हो जाता होता तो बाहुबली एक वर्ष तक अनाहारी रहकर शीत, उष्ण, वायु आदि तीनों ऋतु के कष्ट सहन करते हुए को ज्ञान हो जाता। उनके छोटे भाई केवलज्ञान वाले थे बाहुबली मुनि ने सोचा छोटे भाई जो दीक्षित है उन्हें मैं वंदन कैसे करूं? इस गर्व से संवत्सर तक स्थित रहे थे. पर केवलज्ञान न हुआ। जब वंदन के लिए पैर उठाया तो केवल ज्ञान प्रकट हो गया ।।२५।। नियगमइविगप्पिय चिंतिएण, सच्छंदबुद्धिचरिएण । .. कतो? पारत्तहियं, कीरइ गुरुअणुवएसेणं ॥२६॥ जो सद्गुरु के उपदेश के बिना स्वमति कल्पना से तत्त्वातत्त्व का विचारकर, स्वच्छंद बुद्धि से आचरणा करे उसका पारलौकिक हित कैसे होगा? अर्थात् स्वहित के लिए स्वच्छंद मति का त्याग आवश्यक है। वर्तमान साधु संघ में स्वच्छंद मति अनेक प्रकार से फल फूल रही है और अनेक नयी-नयी आचरणाएँ धडल्ले से बढ़ रही है। कहीं कहीं श्री उपदेशमाला

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