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पूर्व के नंदिषेण के भव में इसका कौन सा (उत्तम) कुल था कि वह अपने सच्चारित्र से दूसरे भव में कृष्णवासुदेव के विशाल हरिवंश में वसुदेव नाम के दादा बनें। जगत में यह सच्चारित्र का ही प्रभाव है ।। ५३ ।। विज्जाहरीहिं सहरिसं, नरिंददुहियाहिं अहमहंतीहिं । जं पत्थिज्जड़ तइया, वसुदेवो तं तयस्स फलं ॥५४॥ रूप से वश बनकर विद्याधरी और राजपुत्रियाँ मैं इनकी पत्नी बनूं, मैं इनकी पत्नी बनूं ऐसी स्पर्धा से अत्यंत हर्ष से उनसे शादि के लिए प्रार्थना करती है यह उनके पूर्वभव के वैयावच्च रूपी तप का ही फल था । । ५४ ।। सपरक्कमराउलवाइएण, सीसे पलीविए नियए । गयसुकुमालेण खमा, तहा कया जह सिवं पत्तो ॥ ५५ ॥ कृष्ण वासुदेव के भाई रूप में अतीव प्यार से पालन पोषण हुआ और अतीव पराक्रमी ऐसे गजसुकुमाल ने अपने मस्तक पर ज्वलित अंगारे भरने वाले पर भी ऐसी क्षमा धारण की कि उस क्षमा के बल से वे मोक्ष पद को प्राप्त हुए । अतः सभी श्रमणों को सफल सिद्धि दायक क्षमा रखनी चाहिए
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रायकुलेंसु वि जाया, भीया जरमरणगब्भवसहीणं । साहू सहति सव्यं, नीयाण वि पेसपेसाणं ॥ ५६॥ राजकुल में जन्मे हुए साधु नीच साधु के भी, दासों के भी दुर्वचन, ताड़मादि सभी सहन करते हैं, क्योंकि वे वृद्धावस्था, मृत्यु और गर्भावास से भयभीत रहते हैं ।। ५६।।
पणमंति य पुव्ययरं कुलया न नमंति अकुलया पुरिसा । पणओ इह पुब्विं जड़ - जणस्स जह चक्कयट्टिमुणी ॥५७॥
विशिष्ट कुल में जन्में आत्मा सर्व प्रथम नमन करते हैं। अकुलीन नमनशील नहीं होते, अतः जैन शासन में चक्रवर्ती पद छोड़कर साधु बना हुआ भी एक छोटे साधु को सर्व प्रथम नमन करता है ।। ५७ ।।
जह चक्कवट्टिसाहू, सामाइयसाहुणा निरुवयारं । भणिओ न चेव कुविओ, पणओ बहुयत्तणगुणेणं ॥५८॥ जैसे एक सामायिक का उच्चारण किये हुए छोटे अज्ञ साधु ने चक्री को विनयादि मर्यादा रहित शब्दों में कहा (तुम अभिमानी हो - मुनियों को वंदन करना चाहिए) तब उस पर कोप न कर उस मुनि को चक्री मुनि ने भाव पूर्वक प्रथम वंदन किया। ( क्योंकि कुलाभिमान और कोप तुच्छ है जब कि
साधु
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श्री उपदेशमाला