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अपरिमित दीर्घ दुःखद संसार भवभ्रमण को उत्पन्न करता है। पाँच महाव्रत यह उत्तम ऊँचा प्राकर किल्ला है इसके कारण जीवरूपी नगर की रक्षा होती है और उसमें गुण समुदाय सुरक्षित रहते हैं ।।५०६ ।।
न करेमि ति भणिता, तं चेव निसेवए पुणो पायं ।। पच्चक्खमुसाबाई, मायानियडीपसंगो य ॥५०७॥
आज्ञाभंजक भ्रष्ट चारित्री कैसा महासाहसिक है कि-"मैं सर्व सावध योग नहीं करूंगा" ऐसी प्रतिज्ञा करके पुनः वही स्वयं ने निषेध किये हुए पाप का बेफाम अधिकता निडर बनकर सेवन करता है साक्षात् झूठ बोलने वाला है असत्य भाषी है (धोले दिन चोरी करने वाले चोर के जैसा है। सुधार के भी अयोग्य है इसमें उसे) 'माया-निकृति'=आंतर बाह्य दंभ सेवन का ही अवसर-समय रहता है ।।५०७।। . लोएडवि जो ससूगो, अलिअं सहसा न भासए किंचि ।। अह दिक्खिओऽवि अलियं, भासइ तो किं च दिखाए ॥५०८॥
वह सामान्यजन से भी विशेष पापिष्ठ है क्योंकि-लोक में भी ज़ो कोई सशंक-कोमल पापभीरु होता है कि विचार पूर्वक कार्य करने वाला होने से एकाएक कुछ भी असत्य नहीं बोलता। सहसा भी असत्य न बोला जाय उसका खयाल रखता है तब साधु-दीक्षा लेकर भी असत्य बोले? तो उसकी दीक्षा से क्या? अर्थात् कुछ भी हित नहीं, उस वेष से आत्मरक्षण नहीं मिलता ।।५०८।।
महव्ययअणुव्बयाई छड्डेउं, जो तवं चरंइ अन्नं । .... सो अन्नाणी मूढो, नावाबुड्डो मुणेयव्यो ॥५०९॥
कहो कि 'तप से सर्व साध्य है' इस शास्त्र वचन से संयम नहीं परंतु तप में यत्न रखें तो? महाव्रत-अणुव्रतों का त्याग कर उसमें दूषण लगाकर जो तपाचरण करता है वह अज्ञानी है, क्योंकि वह मोह से मारा हुआ है। उसे समुद्र में नौका भेदकर उसमें से लोहे की कील लेने वाला 'नावाब्रोद' नावामूर्ख जैसा जानना। छिद्र गिरायी हुई नौका समुद्र में डूबा देती है अतः किल प्राप्त की वह व्यर्थ। उसका कोई उपयोग नहीं। वैसे संयम-भंग भव-समुद्र में डूबा दे अर्थात् वह तपाचरण व्यर्थ जाय ।।५०९।।
सुबहुं पासत्थजणं नाऊणं, जो न होड़ मज्झत्थो । न य साहेइ सकज्जं, कागं च करेड़ अप्पाणं ॥५१०॥
श्री उपदेशमाला
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