Book Title: Updesh Mala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 122
________________ धम्मत्थकाममुक्नेसु, जस्स भावो जहिं जहिं रमड़ । ' वेरग्गेगंतरसं न इमं सव्वं सुहायेइ ॥५३२॥ और धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का जब उपदेश दाता हो तब इसमें से जिसका भाव अभिप्राय यानि अति रसिकता जिस-जिस धर्म, काम या अर्थ में हो, उसमें-उसमें ही वह रक्त बनता है, सभी में या मात्र धर्म में नहीं, तो वैराग्य के एकान्ते रसवाला यह शास्त्र सभी को आल्हादित न करे यह सहज है, विपरीत भारे कर्मी को यह विमुख करता है, उन्हें अरुचिकर बनता है इससे ऐसों को नहीं देना ।।५३२।। संजमतवालसाणं, वेरग्गकहा न होइ कण्णसुहा । . संविग्मपक्खियाणं, हुज्ज व केसिंचि नाणीणं ॥५३३॥ संयम और तप में 'अलस' =उत्साह उद्यम बिना के भारे कर्मी को वैराग्य का उपदेश सुनना पसंद नहीं, कान द्वारा चित्त को आल्हादक नहीं होता। संविग्न पाक्षिक.को संयम तप में अनुत्साह होने पर भी ज्ञानी होने से, संयम तप पर पक्षपात होने से ऐसे आत्माओं को वैराग्य का उपदेश आनंद दायक वनता है ।।५३३।। सोऊण पगरणमिणं, धम्म जाओ न उज्जमो जस्स । न य जणिथं वेरग्गं, जाणिज्ज अणंतसंसारी ॥५३४॥ - यह शास्त्र मिथ्यात्वादि महासर्प से डरे हुए जीवों को जीवन में साध्य क्या? इसका भान न होने से मात्र प्रकरण-पदार्थ संग्रह का शुष्क बोध कराने वाला होता है। क्योंकि यह उपदेश माला नाम का प्रकरण श्रवणकर जिसको सर्वज्ञ कथित धर्म में विशिष्ट उत्साह से भरा हुआ उद्यम न जागे! अरे! श्रवणकर 'वैराग्य' विषय विमुखता भी उत्पन्न न हो उसे अनंत संसारी जानना। काल सर्प से डसे हुए के सदृश वह आसाध्य है। कारण कि।।५३४।। . . कम्माण सुबहुआणुवसमेण उवगच्छई इमं सम्म ।। क.ममलचिक्कणाणं, बच्चइ पासेण भण्णंतं ॥५३५॥ इस समस्त शास्त्र का सम्यग्बोध अति बहुलकर्मी के स्वकार्य करने के असामर्थ्य रूप उपशम, क्षय, क्षयोपशम से कुछ शेष कर्म बाकी रहे तब प्राप्त होता है। बाकी मिथ्यात्वादि कर्म कीचड़ से खरंटित जीवों के आगे यह शास्त्र वांचा जाता हो तब उनके अंतःकरण में उतरे बिना उनके पास से चला जाता है। ऊपर से बह जाता है ।।५३५।। 117 श्री उपदेशमाला

Loading...

Page Navigation
1 ... 120 121 122 123 124 125 126 127 128