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मउआ निहुअसहावा, हासदवविवज्जिया विगहमुक्का । असमंजसमइबहुअं, न भणंति अपुच्छिया साह ॥७९॥
मुनि नम्र निभृत-प्रवृत्ति की धमाल से रहित, (संयम प्रवृत्ति होने पर भी उपशांत होने से निभृत-जैसे सूर्य) हंसी मजाक से रहित, विकथा से रहित अंशमात्र असंगत वचन नहीं बोलनेवाले, और बिना पूछे, योग्य वचन भी अति मात्रा में नहीं बोलते हैं। अर्थात् प्रत्युत्तर देना होता है तब भी अल्प शब्दों का प्रयोग करते हैं ।।९।।
महुरं निउणं थोवं, कज्जावडियं अगव्वियमतुच्छं । पुब्बिं मइसंकलियं, भगति जं धम्मसंजुत्तं ॥८०॥ ..
साधु बोले तब भी मधुर (श्रोता को आल्हादक) निपुण-सूक्ष्म अर्थ युक्त, परिमित, प्रयोजन हो उतना, स्वश्लाघा से रहित, अर्थ गंभीर (तुच्छ शब्द से रहित) बोलने के पूर्व पूर्ण रूप से विचारकर निरवद्य धर्म संयुक्त बोलते हैं। (ऐसे विवेकी साधु शीघ्र मोक्ष प्राप्त करते हैं) ।।८०।।..
सहि वाससहस्सा, तिसत्तखुत्तोदयेण धोएणं । .... अणुचिण्णं तामलिणा, अन्नाणतयुत्ति अप्पफलो ॥१॥
तामली तापस ने इक्कीस बार जल से धोकर साठ हजार वर्ष छट्ठ के पारणे छट्ठ तप करने पर भी अज्ञान तप होने से अल्प फलवाला हुआ। (जीव विराधना एवं सुदेवादि की श्रद्धा न होने से अज्ञान तप कहा गया) ।।८१।।
छज्जीवकायवहगा, हिंसगसत्थाई उवइसंति पुणो । सुबहुं पि तवकिलेसो, बालतवस्सीण अप्पफलो ॥८२॥
अज्ञानी छ जीव निकाय के हिंसक, हिंसा का पोषण हो वैसे वेदादि शास्त्रों के उपदेशक ऐसे बाल अज्ञान तपस्वी कष्टकारी अधिक भी तप का अल्प फल प्राप्त करते हैं। या 'अप्पफलो अपि अफलो' इष्ट नहीं परंतु संसार रूपी अनिष्ट फलदायी होने से निष्फल है ।।८।।
परियच्छंति अ सव्यं, जहट्ठियं अवितहं असंदिद्धं । तो जिणवयणविहिन्नू, सहति बहुअस्स बहुआई ॥८३॥
(सर्वज्ञ के उपदेश से जीवाजीवादि) सभी तत्त्वों को यथार्थ स्वरूप में जानते हैं, निःशंकता से श्रद्धा करते हैं, उससे ही श्री जिन वचन के विधि के ज्ञाता (सर्वज्ञ आगम को विचारने वाले मुनिवर अनेक व्यक्तियों के अनेक उपसर्गों (दुर्वचनों को) सम्यग् रीति से सहन करते हैं। (वे सोचते हैं यह मेरे ही अशुभ कर्मों का फल है उनके दोष नहीं हैं) ।।८३।। श्री उपदेशमाला