Book Title: Updesh Mala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 56
________________ परिग्रह अतीव दोष का कारण और नरक गति की ओर प्रयाण का पंथ है। [इन दो श्लोकों में विरत शब्द का बार-बार प्रयोग विरति की महत्ता समझाने के लिए किया गया है । ] ।। २४४ । । मुक्का दुज्जणमित्ती, गहिया गुरुवयणसाहुपडिवत्ती । मुक्का परपरिवाओ, गहिओ जिणदेसिओ धम्मो ॥ २४५ ॥ ( उत्तम श्रावकों के द्वारा) दुर्जन की मैत्री (संग) छोड़ी हुई होती है। (अर्थात् वे दुर्जन की मैत्री करते ही नहीं) गुरु (तीर्थंकर गणधरादि) के वचनों का 'साहु पडिवत्ती' = सुंदर स्वीकार ( प्रतिज्ञा - पालन) किया हुआ होता है। दूसरे का अवर्णवाद नहीं करता। और जिन भाषित (व्रत- भक्ति आदि) धर्म ग्रहण किया हुआ होता है ।। २४५ ।। तयनियमसीलकलिया, सुसावगा जे हवंति इह सुगुणा । तेसिं न दुल्लहाई, निव्वाणविमाणसुक्खाई ॥ २४६ ॥ इस प्रकार जैन, शासन में तप - प - नियम - शियल से संपन्न जो उत्तम श्रावक गण सद्गुणी होते हैं। उनको मोक्ष एवं स्वर्ग के सुख दुर्लभ नहीं है। (सदुपाय में प्रवृत्त को कुछ भी असाध्य नहीं है ) ।।२४६।। सीइज्ज कयाइ गुरू, तं पि सुसीसा सुनिउणमहुरेहिं । मग्गे ठयंति पुणरवि, जह सेलग-पंथगो नायं ॥ २४७ ॥ (कर्मोदय के वश) कदाच गुरु शिथिल (प्रमादी हो जाय ) तो उनको भी उत्तम शिष्यजन अति निपुण (सूक्ष्म) बुद्धि पूर्वक मधुर वचन ( कहकर और खुद प्रवृत्ति) से पुनः ज्ञानादि रूप सन्मार्ग में लगा देते हैं। जैसे इस विषय में शैलकाचार्य के पंथक शिष्य दृष्टांत भूत है। (क्या आगम ज्ञाता गुरु भी शिथिल बनें ? हा, जानकार को भी कर्म की विचित्रता महा अनर्थ सर्जक हो सकती है। दृष्टांत रूप में - ।। २४७ ।। दस दस दिवसे दिवसे, धम्मे बोहेड़ अहव हिअयरे । इय नंदिसेणसत्ती, तहवि य से संजमविवत्ती ॥ २४८ ॥ प्रतिदिन दस-दस को या उससे भी अधिक प्रतिबोधितकर ( चारित्र) धर्म मार्ग में जोड़ते है वैसी शक्ति नंदिषेण में थी । फिर भी उनके चारित्र का नाश हुआ ।। २४८ ।। कलुसीकओ अ किट्टीकओ अ, खयरीकओ मलिणिओ अ कम्मेहिं एस जीवो, नाऊण वि मुज्झई जेण ॥२४९॥ (मूल स्वरूपे निर्मल) इस जीव को कर्मने कर्मबंध द्वारा (मिट्टि से श्री उपदेशमाला 51

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