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उज्झिज्ज अंतरि च्चिय, खंडिय सबलादउ व्य हुज्ज खणं।
ओसन्नो सुहलेहड, न तरिज्ज व्य पच्छ उज्जमिउं ॥२५४॥ . चारित्र (ग्रहणकर) बिच में छोड़ दे। या एकाद व्रत का खंडन करे, छोटे-छोटे अनेक अधिक अतिचारों से चारित्र को शबल (काबर चितरा) करे या 'आदि' पद से चारित्र को सर्वथा छोड़ दे। उससे अवसन्न (शिथिल साधु) विषय सुख में मग्न बना हुआ पीछे से चारित्र में उद्यम नहीं कर सकता ।।२५४।।
अवि नाम चक्कवट्टी, चइज्ज सब्बं पि चक्कवट्टिसुहं । न य ओसन्नविहारी, दुहिओ ओसन्नयं चयइ ॥२५५॥
कभी चक्रवर्ती चक्रीपने के (छ खंड आदि के) सभी सुखों को छोड़ देता है। परंतु शिथिल विहारी दुःखी हो जायगा तो भी शिथिलता को नहीं छोड़ता। (क्योंकि वह मोह परवश हो गया है) ।।२५५।।
नरयत्थो ससिराया, बहु भणइ देहलालणासुहिओ । पडिओ मि भए भाउअ! तो मे जाएह तं देहं ॥२५६॥ को तेण जीवरहिएण, संपयं जाइएण हुज्ज गुणो! । जइसि. पुरा जायंतो, तो नरए नेव निवडतो ॥२५७॥
नरक में रहा हुआ शशिप्रभं राजा (धर्म कर देव बने) भाई को अनेक प्रकार से कहता है कि हे भाई! पूर्व के शरीर के लालन पालन से आनंद मंगल मानता हुआ मैं (नरक से उद्भवित) भय में गिरा हूँ। अतः मेरे उस
शरीर को तूं कष्ट दे। .. . (जिससे ये नरक के दुःख मिट जाय) (उसके उत्तर में सूरप्रभ राजा
का जीव कहता है कि) जीव रहित उस शरीर को अब कष्ट देने से क्या
लाभ? जो पूर्व में जीवंत शरीर को (त्याग-तप परिसह के) कष्ट दिये होते तो • तूं नरक में ही न आता ।।२५६-२५७।। . जावाऽऽउ सावसेसं, जाव य थोवोऽवि अत्थि यवसाओ। .. ताव करिज्जप्पहियं, मा ससिराया व सोइहिसि ॥२५८॥
(अतः हे शिष्य!) जब तक आयुष्य (अल्प भी) शेष है, जब तक अल्प भी (व्यवसाय) चित्त का उत्साह है, वहाँ तक आत्महितकर साधना . कर ले, जिससे शशीप्रभ राजा के समान पीछे से शोक करना न पड़े। (धर्म
न करने वाला पश्चात्ताप करता है इतना ही नहीं परंतु) ।।२५८।।
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श्री उपदेशमाला