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पूर्वाचार्यों की व्याख्याएँ निरर्थक हो जाय। दृष्टांत रूप में– ।।४१५।।
जह दाइयम्मि वि पहे, तस्स विसेसे पहस्सऽयाणंतो । . पहिओ किलिस्सइ च्चिय, तह लिंगायारसुअमितो॥४१६॥
जैसे प्रवास का मार्ग केवल दिग्दर्शन रूप में तो बता दिया हो. पर प्रवासी (बिच के ग्राम, उसके बिच में क्या-क्या? और सभय-निर्भय कितना? आदि) विशेष न जानता हो (तो भूख चोर आदि से) कष्ट ही पाता है। उसी प्रकार 'लिंग' =रजोहरणादि वेश 'आचार' =मात्र सूत्रानुसारी आपमति से की. जाने वाली क्रिया और 'श्रुतमात्र' =विशिष्ट अर्थ रहित सूत्रधर (अल्पज्ञानी भी अनेक अपायो से कष्ट ही पाता है) ।।४१६।। ।
कप्पाकप्पं एसणमणेसणं, चरणकरणसेहविहिं । पायच्छित्तविहिं पि य, दव्वाइगुणेसु अ समग्गं ॥४१७॥
(इतना-इतना न जाने वह निर्मल चारित्र का पालन कैसे कर सकेगा?) जैसे- 'कप्पाकप्प' साधु को कल्प्य अकल्प्य (उचितानुचित) या मासकल्प, स्थविर कल्पादि-तदितर, 'एसण' =गवेषणा ग्रहणैषणा, ग्रासैषणा में निर्दोषता, सदोषता, चरण-मूलगुण महाव्रतादि की चरण सित्तरी, 'करण' =उत्तरगुण पिंड विशुद्धि आदि की करण सित्तरी और 'सेह' =दीक्षार्थी या नूतन दीक्षित
को सामाचारी शिक्षण की क्रमविधि (उसमें आलोचनादि. प्रायश्चित्त विधि यह किसे क्या देना और किस प्रकार करवाना यह विधिं वह भी द्रव्यादि 'गुणेषु' =द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के योग्य-अयोग्य संयोगों में (देय-अदेय की) समग्र विधि ।।४१७।।
पव्यायणविहिमुट्ठावणं च, अज्जाविहिं निरवसेसं । उस्सग्गववायविहिं, अयाणमाणो कहिं? जयउ ॥४१८॥
दीक्षा प्रदान विधि, 'उपस्थापना' =महाव्रतारोपण विधि, 'अज्जा विधि' =साध्वी गणपालन विधि और संपूर्ण उत्सर्ग अपवाद विधि (द्रव्यादि की अपेक्षा से कर्तव्य-अकर्तव्य मार्ग) को नहीं जानने वाला अल्पज्ञ किस प्रकार शुद्ध संयम में प्रयत्न कर सकेगा? इससे ज्ञान का प्रयत्न करने जैसा और ज्ञानार्थी को गुरु आराध्य है ।।४१८।।
सीसायरियकमेण य, जणेण गहियाइं सिप्पसत्थाई । नजंति बहुविहाई, न चक्खुमित्ताणुसरियाई ॥४१९॥
लोकोत्तर साधु के लिए तो फिर, लोक में भी वैसे विवेक रहित (धर्म के विवेक से रहित) जन सामान्य द्वारा विद्यार्थी कलाचार्य के क्रम से ही श्री उपदेशमाला
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