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सके? वह गच्छ की सारणा वारणादि से अनभिज्ञ है विपरीत प्रवृत्ति से अनर्थ . की परंपरा सर्जे ।।४०७-४०८।।।
सुत्ते य इमं भणियं, अप्पच्छित्ते य देइ पच्छितं ।। पच्छिते अइमत्तं, आसायण तस्स महईओ ॥४०९॥
आगम में ऐसा कहा है कि प्रायश्चित्त पात्र नहीं उसे प्रायश्चित्त दे दे या प्रायश्चित्त के पात्र को अधिक प्रायश्चित्त दे दे। उसे ज्ञानादि की प्राप्ति के नाश की बड़ी आशातना लगती है। क्योंकि अत्यधिक प्रायश्चित्त वहन करने में इतना समय ज्ञानादि की नयी प्राप्ति से रुक जाता है ।।४०९।। . आसायण मिच्छत्तं, आसायणवज्जणाउ सम्मतं । ..
आसायणानिमित्तं, कुव्वइ दीहं च संसारं ॥४१०॥
आशातना (ज्ञानादि के नाश रूप होने से साक्षात्) मिथ्यात्व है। आशातना से बचना यह सम्यक्त्व है क्योंकि आशातना वर्जन का परिणाम सम्यक्त्व है। इसीलिए अगीतार्थ अत्यधिक प्रायश्चित्त दानादि अविधि सेवन द्वारा आशातना करने के निमित्त से स्वयं का संसार दीर्घ और च शब्द से क्लिष्ट बनाता है ।।४१०।।
एए दोसा जम्हा, अगीय जयंतस्सऽगीयनिस्साए ।
वट्टावेइ गच्छस्स य, जोवि गणं देइडगीयस्स ॥४११॥ __ (सारांश) जिस कारण से १. अगीतार्थपने में किये जाते स्वयं आराधना के प्रत्यन में और २. दूसरे अगीतार्थ की निश्रा में रहकर किये जाते आराधना के प्रयत्नों में उपरोक्त दोष है। उससे ही (स्वयं अमीतार्थ ही रहकर) जो गच्छ को चलाता है और ३. जो अगीतार्थ को गच्छभार सौंप देता है उसको भी उपरोक्त दोष लगते हैं। [इससे शास्त्रबोध प्राप्त करने के लिए अतीव प्रयत्न करना चाहिए यहाँ तक द्वार गाथा का विवेचन किया] ।।४११।। ।
अबहुस्सुओ तवस्सी, विहरिउकामी जाणिऊण पहं । अवराहोपयसयाई, काऊण वि जो न याणेइ ॥४१२॥ देसियराइयसोहिय, वयाइयारे य जो न याणेइ । अविसुद्धस्स न वड्डइ, गुणसेढी तत्तिया ठाइ ॥४१३॥ (अब अल्प आगमज्ञान वाले की भी ऐसी ही स्थिति बताते हैं।)
जो मोक्ष मार्ग को नहीं जानने से अवराह-शताधिक अतिचार स्थान का सेवन करता है। कारण कि-'अबहुश्रुत' =विशिष्ट श्रुतज्ञान रहित है फिर
श्री उपदेशमाला
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