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च शब्द से पुत्र धन परिवारादि को छोड़ते हुए वह विवेकीयों को दया उत्पन्न हो ऐसा करुणापूर्ण चिंतन करता है कि - [ अरे रे मैं हीनभागी ने शीघ्र मोक्ष दे ऐसे महान् जिनशासन को पाने पर भी विषयलंपटता से सतत महा दुःखदायी संसार के कारण भूत आरंभ विषय परिग्रह का ही सेवन किया तो हाय! परभव में मुझे साथ किसका ? ] ।। ४६७ ।।
इक्कं पि नत्थि जं सुट्टु, सुचरियं जह इमं बलं मज्झ । को नाम दढक्कारो, मरणंते मंदपुण्णस्स ॥ ४६८ ॥ युग्मम् ॥
हाय ! ऐसा मेरा एक भी 'सुष्ठु सुचरितं' अच्छी प्रकार से आचरित सुकृत नहीं है कि जिससे मेरे पास सद्गति में जाने का वैसा सामर्थ्य हो तो ( जीवन में अच्छे सुकृतों की सामग्री हार जाने से यानि जन्म निष्फल करने से ) मरण के समय मंदभागी मुझे दृढ़ आलंबन किसका ? [ इस प्रकार वह करुण रूदन करता है] ।।४६८।।
सूल - विस-अहि-विसूइय, पाणिय-सत्थ- ग्गि-संभमेहिं च । देहंतरसंकमणं, करेड़ जीयो मुहतेणं ॥ ४६९ ॥
(केवल पित्तादि के प्रकोप से ही आयुष्य क्षय नहीं, परंतु ) शूल, विष, सर्प, 'विसुइ'=विसूचिका, झाडे उलटी। पानी का पूर, शस्त्र, आग, और संभ्रम (अतिमय आदि के आघात से 'मुहुत्तेण' = अति अल्प काल में जीव ( यह शरीर छोड़कर दूसरे देह में संक्रमण गमन करता है। अंत में ऐसी चिंता और शोक धर्म नहीं करने वाले को होता है । किन्तु ।।४६९ ।।
कत्तो चिंता सुचरिय - तबस्स, गुणसुट्ठियस्स साहुस्स ? | सोग्गड़-गम- पडिहत्थो, जो अच्छड़ नियम - भरियभरो ॥ ४७० ॥
जिसने सुंदर प्रकार से अनशनादि द्वादश भेदे तप किया हो, जो संयमगुण में सुस्थिर है, ऐसे साधु को (मोक्ष साधक को ) चिंता कहाँ से हो ? क्योंकि वह नियमादि द्रव्यों से अभिग्रह रूप माल से भरे हुए शकट वाला (गाड़ावाला) है और उसीसे ही 'सोग्गइ - गम - पडिहत्थो' स्वर्ग मोक्ष गमन रूप सुगति गमन में दक्ष चतुर है। (अर्थात् ऐसे साधु को जीवन के अंत में चिंता शोक करने का अवसर ही नहीं आता ) ।।४७० ।।
साहंति य फुडविअडं, मासाहस - सउण - सरिसया जीवा । नय कम्मभार - गरुयत्तणेण तं आयरंति तहा ॥ ४७१ ॥
लघुकर्मी आत्मार्थी इस प्रकार आराधना करता है परंतु मानाकांक्षी 'मा साहस' पक्षी जैसे जीव दूसरों को स्फूट - स्पष्टरूप से 'विकटं' =विस्तार से श्री उपदेशमाला
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