________________
प्रकार के आहट्ट - दोहट्ट विचार करता है और वह बेचारा बना हुआ स्वयं के पसंदानुसार उसे कुछ मिलता भी नहीं और उसकी इच्छानुसार कुछ होता भी नहीं और विपरीत निरर्थक प्रतिक्षण नरकादि योग्य अशातावेदनीयादि पापकर्म भरपूर बांधता है अतः स्थिर शुद्ध मन बनाकर ऐसे आहट्ट - दोहट्ट विचार बंध
करना ।।४८६ ।।
जह जह सव्युवलद्धं, जह जह सुचिरं तवोवणे वुच्छं । तह तह कम्मभरगुरू, संजमनिब्बाहिरो जाओ ॥ ४८७ ॥ भारे कर्मी की ऊल्टी चाल कैसी? तो कहा कि ज्ञानावरण के क्षयोपशम से आगम की बातें जैसे-जैसे जानता गया और जैसे-जैसे अच्छा दीर्घकाल तपोवन - साधु समुदाय में रहता गया वैसे-वैसे मिथ्यात्वादि कर्म के थोक से भारी होता गया और संयम - आगमोक्त आचरण से बाह्य दूर होता
-
गया ।।४८७ ।।
विज्जप्पो जह ज़ह ओसहाई, पिज्जेड़ वायहरणाई । तह तह से अहिययरं, याएणाऊरियं पुटं ॥४८८॥ विजप्पो आप्त विश्वसनीय वैद्य जैसे-जैसे स्वयं के भान रहित कुपथ्यसेवी रोगी को वायु नाशक सूंठ आदि औषध दे वैसे-वैसे उस दरदी का पेट पूर्व से भी अधिक वायु से भरा जाता है। इस प्रकार भगवान जिनवचन रूपी भाववैद्य के पास से आत्मभान बिना का अनेक प्रकार से पापीष्ठ साधु रोगी जैसे-जैसे कर्मरोगहर आगमपद रूपी औषध पीया करता है, वैसे-वैसे उसका चित्त रूपी पेट - वायु से अधिकाधिक भरता जाता है अर्थात् पापी साधु जैसेजैसे शास्त्र पढ़ता जाय, तप करता जाय वैसे-वैसे वह अधिक से अधिक मोह में असंयम की प्रवृत्ति में फंस जाता है ।।४८८।।
दडुजउमकज्जकरं, भिन्नं संखं न होइ पुण करणं । लोहं च तंबविद्धं, न एइ परिकम्मणं किंचि ॥ ४८९ ॥
ताम्र
• जिनवचन - वैद्य के उपचार से भी असाध्य वह असाध्य ही है जैसे जल गयी लाख काम में नहीं आती, फूटा हुआ शंख सांधा नहीं जाता, हुआ लोहा अब किसीभी प्रकार से परिकर्म-सुधार (पूर्वावस्था) को प्राप्त नहीं हो सकता वैसे ही वह पापी साधु पुनः संयम प्रापक चिकित्सा के . . अयोग्य बनता है ।। ४८९ ।।
को दाही उवएसं, चरणालसयाण दुव्विअड्डाण ? | इंदस्स देवलोगो, न कहिज्जइ जाणमाणस्स ॥४९० ॥
श्री उपदेशमाला
105