Book Title: Updesh Mala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 97
________________ है ।।४३२।। तो हयबोही य पच्छा, कयावराहाणुसरिसमियममियं । पुण वि भयो अहिं पडिओ, भमड़ जरामरणदुग्गम्मि ॥४३३॥ इससे ऐसी बोधि का हनन करनेवाला पिछे से 'कय' = आज्ञांनिरपेक्ष हृदय से सेवित अतिचारों के अनुरूप यह (ज्ञानिदृष्ट) 'अमित' =अनंत संसार समुद्र में पुनः गिरकर अति गहन जरा-मृत्यु के किल्ले में भटकता हो जाता है। [ यह तो परलोक का अनर्थ बताया परंतु यहाँ पर भी - ) ।। ४३३ ।। जड़याऽणेणं चत्तं, अप्पाणयं नाणदंसणचरितं । तड़या तस्स परेसुं, अणुकंपा नत्थि जीयेसु ॥ ४३४ ॥ जब उसने (पुण्यशाली ने) स्वयं के ज्ञान, दर्शन, चारित्र को फेंक दिये तब ऐसा कहा जाता है कि उसे अन्य प्राणियों पर अनुकंपा नहीं हैं। [क्योंकि वैसे जीव अधर्म पायेंगे ] ।।४३४।। छक्कायरिऊण असंजयाण, लिंगावसेसमित्ताणं । बहुअस्संजमपवाहो, खारो मङ्गलेइ सुठुअरं ॥ ४३५॥ पृथ्वीकायादि षट् जीव निकाय के शत्रु भूत और असंयत् मन- - वचन काया के यथेच्छक प्रवर्त्तक और इसीलिए ही रजो-हरण के धारक (वेशधारी) को अतीव असंयम का प्रवाह, उसके लिए पाप समूह लगता है और वह क्षार है । वस्त्रादि को वैसा क्षार जलाकर अतीव खराब कर देता है वैसे ।। ४३५ ।। किं लिंगविड्डरीधारणेण ? कज्जम्मि अट्ठिए ठाणे । राया न होइ सयमेयधारयं चामराडोवे ॥ ४३६॥ जो रजोहरणादि साधुवेश धारणकर 'कार्ये' = संयम रूपी कार्य सिद्ध न होता हो तो वेश के 'वड्डर' आडंबर से क्या लाभ? ( वह साधु ही नहीं है) वैसे अपने आप सिंहासन पर बैठकर चामर और छत्र ध्वज आदि का आडंबर धरने से राजा नहीं बना जाता। क्योंकि वहाँ राज्य संपत्ति भंडार, प्रजा, सेनादि परिवार का कार्य संपन्न नहीं होता । यह होता हो तो वह राजा माना जाता है. वैसे संपूर्ण संयम पालन से साधु बना जाता है ।। ४३६।। जो सुत्तत्थविणिच्छिय-कयागमो मूलउत्तरगुणोहं । उच्चहइसयाऽखलियो, सो लिक्खड़ साहुलिक्खम्मि ॥४३७॥ जो कोई सूत्र - अर्थ के (श्रुतसार - परमार्थ समजने के साथ निश्चय युक्त बनकर 'कृतागम'-आगम को आत्मसात करता है और 'मूलोत्तरगुणौघ' = महाव्रत और पिंडविशुद्धी आदि गुण समूह को 'उद्वहति' सम्यक् प्रकार से श्री उपदेशमाला 92

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