Book Title: Updesh Mala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 96
________________ भी वह 'कंसिया' = दर्पण से मापकर तल देकर माप के बिना तेल खरीदने वाले ग्रामवासी के जैसा है ( साधु मूर्ख इसीलिए कि वह अति अल्प लेकर अधिक हार जाता है) ।।४२८।। छज्जीवनिकायमहव्ययाण, परिपालणाए जइधम्मो । जड़ पुण ताइँ न रक्खड़, भणाहि को नाम सो धम्मो ? || ४२९ ॥ साधु धर्म षड् जीवनिकाय की रक्षा और महाव्रतों के पालने से बनता है। अब वह जो इसका पालन-रक्षण न करे तो हे शिष्य ! तूं ही कह उसका कौन सा धर्म होगा? अर्थात् धर्म रूप नहीं होगा ।। ४२९ ।। छज्जीवनिकायदयाविवज्जिओ, नेव दिक्खिओ न गिही । जड़धम्माओ चुक्को, चुक्कड़ गिहिदाणधम्माओ ॥४३०॥ षड् जीवनिकाय की दया से रहित ( अर्थात् जीवों की विराधना से जीव हिंसा से) वह दीक्षित साधु ही नहीं है। क्योंकि वह चारित्र हीन है और साधु वेश धारण करने से वह गृहस्थ भी नहीं है। इस स्थिति में यति धर्म से भ्रष्ट गृहस्थ को शक्य दान धर्म से भी वह रहित है कारण सुसाधु को गृहस्थ आहार पानी लेने कल्पे, परंतु ऐसे साधु के पास से कुछ भी लेना न कल्पे । अर्थात् ऐसे के भाग्य में सुसाधु को दान भी नहीं ।। ४३० || सय्याओगे जह· कोइ, अमच्चो नरवइस्स घितुणं । आणाहरणे पावड़, यहबंधणदव्वहरणं च ॥४३१॥ संपूर्ण गुण अति दुर्लभ है उससे जितना धर्म करे उतना अच्छा नहीं? हा, परंतु वह देशविरति के विचित्र प्रकार होने से गृहस्थ के लिए अच्छा, परंतु सर्व विरति धर साधु के लिए अच्छा नहीं । उसको तो अल्प भी आज्ञा भंग भयंकर बनता है। जैसे कोई मंत्री जो राजा प्रसन्न होने पर राजा के पास राजा संबंधी सभी अधिकार प्राप्तकर कभी राजाज्ञा का उल्लंघन करें तो उसे दंडादि से मार, रस्सी से बंधन, संपत्ति से रहितता और च शब्द से कभी मृत्यु भी मिल जाय ।। ४३१ ।। तह छक्कायमहव्यय - सव्यनिवित्तीउ गिण्हिऊण जई । एगमवि विराहंतो, अमच्च - रण्णो हणइ बोहिं ॥४३२॥ उसी प्रकार साधु षट् जिवनिकाय और महाव्रतों में (सभी प्रकार से . रक्षा करने रूप) 'निवृत्ति' = नियम लेकर एक भी ( काय या महाव्रत की ) विराधना करने से 'अमर्त्य राजा' = जिनेश्वर भगवान की 'बोधि' आज्ञा का हनन करता है या परभव के लिए 'बोधि' जिन धर्म की प्राप्ति का हनन करता 91 श्री उपदेशमाला

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