Book Title: Updesh Mala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 89
________________ ( प्रश्न होता है कि तपादि अनुष्ठान में ) प्रत्यनशील साधु और जो गच्छ चलावे वह (और च शब्द से ग्रंथों की व्याख्या करने वाला) संयम युक्त होते हुए भी अनंत संसारी कैसे होता है ? ।। ३९९ ।। दव्यं खित्तं कालं भावं पुरिसपडिसेवणाओ उ । नवि जाणड़ अगीअत्थो, उस्सग्गववाइयं चैव ॥४००| ( उत्तर में) अगीतार्थ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पुरुष और प्रतिसेवना= निषिद्ध आचरण को नहीं जानता । और उत्सर्ग अपवाद मार्ग के अनुष्ठान एव= तद्गत गुणदोष को अगीतार्थ होने से नहीं जानता । [ जिससे अज्ञानता से विपरीत वर्तनकर सानुबंध - कर्मबंधकर अनंत संसारी होता है] ।।४००।। जहठियदव्यं न याणड़, सचिताचित्तमीसियं चेव । कप्पाकप्पं च तहा, जुग्गं वा जस्स जं होइ ॥ ४०१ ॥ ( पूर्व की द्वारा गाथा के प्रत्येक पद का विचार - ) अंगीतार्थ साधुद्रव्य के विषय में यथास्थित द्रव्य नहीं जानता, जैसे- यह द्रव्य सचित्त है? या अचित्त है? या मिश्र है? वैसे ही साधु को कल्प्य है या अकल्प्य ? साधु के योग्य है या अयोग्य? या 'जस्स जं' कोई ग्लान, बाल, तपसी आदि को क्या चाहिए? (अगीतार्थ यह कुछ नहीं जानता ) ।। ४०१ । जहठियखित्त न जाणड़, अद्धाणे जणवए अ जं भणियं । कालं पि अ नवि जाणइ, सुभिक्ख-दुभिक्ख जं कप्पं ॥ ४०२ ॥ अगीतार्थ यथास्थित क्षेत्र को न समझे कि यह क्षेत्र संयमोपकारक है या अपकारक ? और विहार के मार्ग में है या उन उन ग्राम नगरादि देश में जिनागमों में कर्तव्य रूप में जो कहा हो उसे न जानता हो, वैसे यथास्थित काल - समय को भी नहीं जानता, सुकाल दुष्काल है, उस समय पदार्थ या करणीय क्या है? उसे नहीं जानता ।। ४०२ ।। भावे हट्ठगिलाणं, नवि याणड़ गाढऽगाढकप्पं च । सहु असहुपुरिसं तु वत्थुमवत्थं च नवि जाणे ॥ ४०३ ॥ अगीतार्थ भाव के विषय में भी न जानें (साधु नीरोगी है या रोगिष्ठ ? वैसे ही गाढ़ - प्रयोजन में क्या कल्प्य ? और सामान्य प्रयोजन में क्या कल्प्य ? उचित क्या? वैसे ही पुरुष के विषय में यह भी नहीं जानता कि साधु सहिष्णु (खड़तल - कठोर शरीरवान) है या असहिष्णु - कोमल शरीरवान? शरीर परिश्रमी है या अपरिश्रमी? वस्तु - आचार्यादि है या सामान्य साधु ? यह भी न जानें श्री उपदेशमाला 84

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