Book Title: Updesh Mala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 87
________________ अपेक्षा से विधेय के त्याग का एवं निषिद्ध के आचरण का प्रसंग आता है इस कारण) 'आयं वयं तुलिज्जा' ज्ञानादि के लाभ-हानि की तुलना करनी जैसे लाभाकांक्षी व्यापारी ( व्यापार में लाभ-हानि का विचारकर) अधिक लाभ वाली प्रवृत्ति करता है। मुनि को यहाँ प्रवृत्ति निवृत्ति में ध्यान यह रखना है कि राग-द्वेष के त्याग पूर्वक स्वात्मा को सम्यक् संतोषित करना । परंतु माया पूर्वक दुष्ट आलंबन न लेना क्योंकि - - ।। ३९२ । । धम्मंमि नत्थि माया, न य कवडं आणुवत्तिभणियं वा । फुडपागडमकुडिल्लं, धम्मवयणमुज्जुयं जाण ॥ ३९३॥ हे जीव ! तूं समझ कि धर्म तो सद्भाव सरल भाव से साध्य है। उससे इसमें माया का अत्यंत त्याग होना चाहिए। कपटट-दूसरे को ठगने की प्रवृत्ति न हो, अथवा अणुवत्ति 'भणियं' = बोलने का सदोष दूसरे को खुश. करने के लिए न हो किंतु 'स्फूट' = '= स्पष्ट अक्षर युक्त, प्रकट = शरम में. न आना पड़े वैसे 'अकुटिल' '=माया रहित धर्मवचन ये धर्म प्रति 'ऋजु'=अनुकूल है ।। ३९३ ।। नवि धम्मस्स भडक्का, उक्कोडा वंचणा व कवडं या 1 निच्छम्मो किर धम्मो, सदेवमणुआसुरे लोए ॥ ३९४॥ 'भडक्का' = बड़ा आसन आदि आडंबर यह धर्म का साधन नहीं है (वैसे) उक्कोडा = तुम मुझे यह दो तो मैं यह धर्म करूं ऐसा बदला या 'वंचना'=सामने वाला कुछ देता है अतः तत्त्वज्ञानादि देने की मायायुक्त चतुराई या कपट - मायाचार ( दूसरे को ठगने की प्रवृत्ति) यह धर्म का साधन नहीं है। (पूर्व की गाथा की यहाँ पुनरुक्ति की वह उस माया के साथ धर्म का अत्यंत विरोध बताने के लिए। यह अत्यंत विरोध होने से ही कहते हैं ) 'निश्छद्म'=माया (बहाने) रहित ही वही ही 'किर धर्म ' = आप्तोक्त धर्म के रूप में देव मनुष्य असुर सहित लोक में प्रवृत्त हैं । । ३९४ ।। भिक्खु गीयमगीए, अभिसेए तहय चेव रायणिए । एवं तु पुरिसचत्थं, दव्चाइ चउब्विहं सेसं ॥ ३९५॥ (३९२वीं गाथा में आय-व्यय तोलकर वर्तन करने का कहा तो वह किस आश्रय से तोलना? तो कहा कि - - ) साधु - गीतार्थ - आगमज्ञ, अगीतार्थ, 'अभिषेक'=उपाध्याय, 'तथा च'=आचार्य, 'चेव' = स्थिर-गणावच्छेदक, प्रवर्त्तक, 'रायणिए'=रत्नाधिक (चारित्र पर्याये अधिक), इस प्रकार पुरुष वस्तु को आश्रयकर आय - व्यय की तुलना करनी । शेष द्रव्यादि (द्रव्यं - क्षेत्र - काल श्री उपदेशमाला 82

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