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अनर्थकारी है) और स्त्री की आँख से आँख कभी नहीं मिलानी ।। ३३७ ।। सज्झाएण पसत्थं झाणं, जाणइ य सव्यपरमत्थं । सज्झाए वट्टंतो, खणे खणे जाड़ वेरग्गं ॥३३८॥
( स्वाध्याय द्वार - ) ( वाचना पृच्छनादि) स्वाध्याय करने वाला १. प्रशस्त ध्यान, २. समस्त तत्त्व का ज्ञाता, ३. स्वध्याय से प्रतिक्षण वैराग्य को पाता है। क्योंकि स्वाध्याय प्रतिक्षण राग का मारक है ।। ३३८ ।।
उड्डमहतिरियलोए, जोइसवेमाणिया य सिद्धि य । सव्यो लोगालोगो, सज्झायविउस्स पच्चक्खो ॥ ३३९॥ स्वाध्याय कारक को उर्ध्वलोक में वैमानिक देवलोक, सिद्धस्थान, अधोलोक में नरक (भवनपति ) तिछे लोक में ज्योतिष ( व्यंतर और असंख्यात द्वीप समुद्र, अरे!) सभी लोक - अलोक प्रत्यक्ष हो जाता है। ( स्वाध्याय निमग्न आत्मा संपूर्ण जगत को साक्षात जानता देखता है) ।।३३९।।
जो निच्चकाल तवसंजमुज्जओ, गवि करइ संज्झायं । अलसं सुहसीलजणं, न वि तं ठावेड़ साहुपए ॥ ३४० ॥ (स्वाध्याय न करने से अनर्थ) जो साधु नित्य तप और संयम में उद्यमी (अप्रमादी) परंतु स्वाध्याय में प्रमादी अपने कर्तव्य अदा करने में आलसु सुख शीलियो (शाता लंपट ) लोक को (शिष्यादि वर्ग को ) साधु पद पर स्थापन नहीं कर सकता ( साधुता प्राप्त नहीं करवा सकता) स्वाध्याय के बिना साधुता का ज्ञान नहीं होता । ( स्वयं कुछ अप्रमादी परंतु ज्ञान रहितता से दूसरों का कल्याण नहीं कर सकता ) ।। ३४० ।।
विणओ सासणे मूलं विणीओ संजओ भवे ।
विणयाओ विप्पमुक्कस्स, कओ धम्मो ? कओ तवी ? ॥३४१ ॥ (विनय द्वार) द्वादशांगी रूपी जैन शासन में धर्म का मूल विनय है। विनय से संयम योग्य निरहंकार और कषाय निग्रह आता है अतः विनीत आत्मा ही संयमी बनता है ।। ३४१ ।।
विणओ आवहड़ सिरिं, लहड़ विणीओ जसं च कितिं च । न कयाइ दुब्विणीओ, सकज्जसिद्धिं समाणेड़ || ३४२॥ विनय हीन दुर्विनीत आत्मा में मूल विनय न होने से, तप कहाँ से होगा? धर्म कहाँ से होगा ? ( नहीं ही होगा ) ।
विनय (अष्ट कर्म का विनयन- अपनयन कराने वाला होने से सर्व संपत्ति को प्राप्त कराता है। और विनीत आत्मा (मान सुभट के पराभव के
श्री उपदेशमाला
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