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किया। अब जो समर्थ साधक को शिथिलता से संयम का अभाव होता हो और ग्लान को नहीं तो क्या उपचार भी नहीं करवाना? उसके लिए कहते हैं ।)
( रोग सहन यह परिसह जय है, संवर साधना है और रोग कर्मक्षय में सहायक है अतः) रोग की अतीव पीड़ा को भी जो सहन कर सके (दुर्ध्यान होने न दे) तो वह रोग प्रतिकार न करावे । परंतु जो रोगादि सहन करते समय ( संघयण बल की कमी से) संयम योगों में (पडिलेहणादि कार्य) सीदाते हो, प्रमाद होता हो तो उसे औषध करवाना अनुचित नहीं है ।। ३४६ ।। निच्वं पवयणसोहा-कराण, चरणुज्जयाण साहूणं । संविग्गविहारीणं, सव्यपयतेण कायव्यं ॥ ३४७॥
( अन्य साधुओं का कर्तव्य यह है कि ) सदा जैन शासन की प्रवचन, शोभा करनेवाले 'चरणोद्यतं' अप्रमादी और 'संविग्न' = मोक्ष की इच्छा से विचरने वाले साधुओं का सर्व प्रकार से वैयावच्चादि करना चाहिए ।।३४७ । । हीणस्स वि सुद्धपरूवगस्स, नाणाहियस्स कायव्यं 1. जणचित्तग्गहणत्थं करिंति लिंगावसेसेऽवि ॥ ३४८ ॥
अप्रमत्त आत्मार्थी मुनि को लोक रंजन के लिए चारित्र में शिथिल
परंतु विशेष ज्ञानी और आगम के शुद्ध प्ररूपक का भी उचित कार्य करना ( कारण कि साधु निर्दय है, परस्पर ईर्ष्यालु है ऐसा लोकों में शासन का उड्डाह न हो) ।।३४८।।
दगपाणं पुप्फफलं, अणेसणिज्जं गिहंत्थकिच्चाई । अजया पडिसेवंति, जड़वेसविडंबगा नवरं ॥३४९॥
(वे मात्र वेशधारी पासत्यादि कैसे होते हैं? तो कहा कि - ) सचित्त जल, पुष्प, फल और आधाकर्मि आदि दोषित आहार लेने वाले, गृहस्थकार्य (गृहकरणादि) 'अजया'= यतना रहित (पाप में निर्दय ) पाप सेवन करनेवाले होते हैं। ये मुनिवेशधारी मुनि गुण रहित वेश विडंबक है ।। ३४९ ।।
ओसन्नया अबोही, पययणउब्भावणा य बोहिफलं । ओसन्नो वि वरं पि हु, पवयणउब्भावणापरमो ॥३५०॥ (सर्व ओसन्न) शिथिलाचारी के रूप में इस भव में लोको में पराभव पाता है और आज्ञा का विराधक होने से परलोक में) अबोधि जैन धर्म की प्राप्ति से रहित होता है। कारण कि शासन प्रभावना ही बोधिरूप कार्य उत्पन्न करती है । (संविग्न विहारी के अनुष्ठान देखकर लोक शासन- प्रशंसा करते
श्री उपदेशमाला
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