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हैं) स्वयं शिथिल होने पर भी (वादलब्धि व्याख्यानादि से) सुसाधु के गुण प्रकाशन आदि से मुख्यता से शासन प्रभावना करता है, वह देश-ओसनो भी श्रेष्ठ है ।।३५०।।
गुणहीणो गुणरयणायरेसु, जो कुणइ तुल्लमप्पाणं । सुतवस्सिणो य हीलइ, सम्मत्तं कोमलं (पेलव) तस्स ॥३५१॥
जो चारित्रादि गुणहीन हम भी साधु है? ऐसा कहकर स्वयं को गुणसागर साधुओं के तुल्य मानने वाला एवं मनवाने वाला यह उत्तम तपस्वीयों को ये तो मायावी हैं लोक को ठगने वाले हैं ऐसा कहकर हीन दर्शाता है ऐसा मुनि वेशधारी मिथ्यादृष्टि ही है क्योंकि उसका दिखायी देनेवाला समकित निःसार है। (समकित गुणवानों के प्रति प्रमोद भाव से साध्य है) ।।३५१।।
ओसन्नस्स गिहिस्स व, जिणपवयणतिव्यभावियमइस्स । कीरइ जं अणवज्जं, दढसम्मत्तस्सऽवत्थासु ॥३५२॥
प्रवचन भक्ति युक्त सुसाधु पासत्थादि शिथिलाचारी या जिनागम में गाढ़ चित्तवाले समकितधारी सुश्रावक के निरवद्य (निष्पाप) उचित कार्यों की प्रशंसादि करे तो वह भी द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-आपत्ति समय में ही कारण हो तो ही करनी है, सदा नहीं ।।३५२।। .: पासत्थोसन्नकुसील, - नीयसंसत्तजणमहाच्छंदं ।
नाऊण तं सुविहिया, सव्वपयत्तेण वज्जति ॥३५३॥
. 'पांसत्थो' =ज्ञानादि के पास रहे इतना ही, आराधना न करे, . 'ओसन्नो' =आवश्यकादि में शिथिलाचारी 'कुशील' खराब आचार युक्त, . . 'नीय' =नित्य एक स्थान पर रहने वाला, 'संसत्त'-पर-गुण-दोष में वैसा होने
वाला (जल तेरा रंग कैसा, जिसमें मिले वैसा) 'अहा-छंदो' आगम निरपेक्ष स्वमति से चलने वाला, (यह पूर्वोक्त से अधिक दोष युक्त होने से पृथक् बताया) इन छ को पहचानकर सुविहित साधु इनके संग रहने का सर्व प्रयत्न से त्याग करे ।।३५३।।
बायालमेसणाओ, न रक्खड़ थाइसिज्जपिंडं च । आहारेइ अभिक्खं, विगईओ सन्निहिं खाइ ॥३५४॥
(पासत्थादिपना. कैसी शिथिलताओं में आवे? उसका स्वरूप-) - 'एसणा' =गोचरी गवेषणा के ४२ दोष त्याग रूप एषणा समिति का पालन न
करे, बालकों को रमाने वाला, धावमाता का कार्य कर धात्री पिंड, शयातर - 73
श्री उपदेशमाला