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विज्जं मंतं जोगं, तेगिच्छं कुण्इ मुकम्मं च ।
अक्खर-निमित्तजीवी, आरंभपरिम्पाहे स्मई ॥३६५॥ . (देवी अधिष्ठित) विद्या, (देवाधिष्ठित) मंत्र (विशिष्ट द्रव्यों का मिश्रण रूप) योग के प्रयोग या दवा उपचार करें, भूति-राख मंत्रित राख, (वासक्षेप) का प्रयोग करें (ये गोचरी के लिए, दाक्षिण्यता से या सत्कार सम्मान प्राप्त करने हेतु करे) अक्षर-निमित्त, 'पाठशाला' =जोषीपना इससे आजीविका चलावें, 'आरंभ'पृथ्वीकायादि जीवों का नाश करें, 'परिग्रह' =अधिक उपकरपा ग्रहण में रमण करें ।।३६५।।
कुज्जेण विणा उम्गह-मणुजाणावेइ, दिवसओ सुयइ । अज्जियलाभं भुंजडू, इथिनिसिज्जासु अभिरमड़ ॥३६६॥
बिना प्रयोजन इन्द्र-राज्जा आदि से अवग्रह की याचना करे (अल्प स्थान की जरूरत हो फिर भी विशेष स्थान (जगह) की याचना करें) दिन में शयन करे, साध्वी का लाया आहार ले, और स्त्री के आसन पर स्त्री के उठ जाने पर शीघ्र बैठे ।।३६६।।
उच्चारे पासवणे, खेले सिंघाणे अणाउत्तो । .. संथारगउवहीणं, पडिक्कमइ वा सपाउरणो ॥३६॥
स्थंडिल, मात्रा, थूक, श्लेष्म आदि परठने में उपयोग न रखें (अजयणा करें) संथारे पर, उपधि पर रहकर या एक से अधिक वस्त्र पहनकर प्रतिक्रमण आदि क्रिया करें ।।३६७।।
न करेइ पहे जयणं, तलियाणं तह करेइ परिभोगं । चरइ अणुबद्धवासे, सपखपरपक्वओ माणे ॥३६८॥
मार्ग में चलते सचित्त जलादि के संघट्टे से बचने का प्रयत्न न करें, बूट, चंपल पहनकर चले, वर्षाकाल में विहारादि करें, और जहाँ स्व पक्षी जैन श्रमण और परपक्षी (बौद्धादि) साधु हो ऐसे क्षेत्र में सुखशीलता से इस प्रकार रहे कि जिससे अपमान-लघुता को प्राप्त करें ।।३६८।।
संजोअइ अड़बहुअं, इंगाल सधूमगं अणट्ठाए । . भुंजड़ रूवबलट्ठा, न धरेइ अ पायपुंछणयं ॥३६९॥
(भोजन मांडली के पाँच दोषों का सेवन करें) १. दूधादि में अन्य द्रव्य का संयोजन करे, २. अति प्रमाण में आहार ले, ३. अंगार दोष (राग), ४. ध्रुमदोष (द्वेष) से वापरें, ५. अणट्ठाण क्षुधा की वेदना आदि छ कारण बिना आहार ग्रहण करे, शरीर का सौंदर्य बढ़ाने के लिए आहार ले और
श्री उपदेशमाला
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