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संसारमणवयग्गं, नियट्ठाणाइं पायमाणो य । भमइ अणंतं कालं, तम्हा उ मए विवज्जिज्जा ॥३३२॥
वह मनुष्य इस अपार संसार में वे-वे निंद्य जात्यादि स्थान पाकर अवश्य अनंत काल भटकता है अतः जात्यादि मद का त्याग कर ।।३३२।।
सुटुं वि जई जयंतो, जाइमयाईसु मज्जइ जो उ । सो मेअज्जरिसी जह, हरिएसबलु व्य परिहाइ ॥३३३॥
जो साधु सुंदर तपादि अनुष्ठान में रक्त हो तो भी जाति मदादि से उन्मत्त रहे तो मेतार्य मुनि, हरिकेशीबल समान नीच जाति कुल की हीनता को पाता है ।।३३३।। . इत्थिपसुसंकिलिहूं, वसहिं इत्थिकहं च वज्जतो ।
इत्थिजणसंनिसिज्जं, निरुवणं अंगुवंगाणं ॥३३४॥
(ब्रह्मचर्य गुप्ति द्वार-) १. स्त्री (देवी, मानवी) और पशु स्त्री के संक्लेश युक्त स्थान, २. स्त्री कथा, (स्त्री अकेली हो तो धर्मकथा का भी वर्जन), ३. स्त्री के आसन का और ४. स्त्री के अंगोपांग देखने का त्याग करना। (साध्वीयों को पुरुष के साथ समझना) ।।३३४।।
पुवरयाणुस्सरणं, इत्थिजणविरहरूवविलयं च । . अइबहुअं अइबहुसो, विवज्जयंतो अ आहारं ॥३३५॥
५. पूर्व के भोगों का स्मरण, ६. स्त्री के विरह गीत या कामवासना जागृत हो वैसे शब्द श्रवण, ७. अति आहार और ८. प्रणीत रस विगयी युक्त
आहार का त्यांग ।।३३५।। - वज्जतो अ विभूसं, जइज्ज इह बंभचेरगुत्तीसु । ... : साहू तिगुत्तिगुत्तो, निहुओ दंतो पसंतो अ ॥३३६॥ ___..९. शरीर शोभारूप विभूषा का त्याग करता हुआ मुनि इस जिन प्रवचन में ब्रह्मचर्य की रक्षा की नव गुप्ति के पालन में रक्त रहता है क्योंकि वह 'त्रिगुप्ति गुप्त' =मन-वचन-काया के निरोध से सुरक्षित और 'निभृत'=शांतता के कारण प्रवृत्ति रहित, दान्त यानि जितेन्द्रिय और प्रशान्त यानि कषायों का निग्रह करने वाला है ।।३३६।। .. गुज्झोरुवयणकक्खोरुअंतरे, तह थणंतरे दटुं । . साहरइ तओ दिडिं, न बंधड़ दिट्ठिए दिहिं ॥३३७॥ .
स्त्री के गुह्यांग, साथल, मुख, बगल, छाती, स्तन के भाग अजानते नजर में आ जाय तो दृष्टि वापिस खींच ले। (क्योंकि यह दर्शन महा
श्री उपदेशमाला
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